Unseen Passage for Class 11 in Hindi अपठित गद्यांश

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गद्यांश को हल करते समय, आप कक्षा 11 के कुछ अनदेखे अंश देखेंगे जिनमें एमसीक्यू भी मौजूद हैं। इन्हें हल करके और अपनी परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त करके खुद को एक विशेषज्ञ बनाने के लिए यह प्रदान किया जाता है।

Unseen Passage for Class 11

Unseen Passage for Class 11 in Hindi

01 निम्नलिखित अपठित गद्यांश को ध्यान से पढ़ें और प्रश्नों का उत्तर दें:

साहित्य का स्वरूप कैसा होना चाहिए, इस बात को लेकर पाश्चात्य एवं भारतीय आचार्यों ने काव्यशास्त्रीय दृष्टि से अनेक विचार व्यक्त किये हैं। स्थूल रूप से गद्य-पद्यात्मक समस्त रचनाओं को साहित्य के अन्तर्गत माना जाता है। इसके भी दो रूप होते हैं–उपयोगी साहित्य और ललित साहित्य। उपयोगी साहित्य तो उक्त परिभाषा में सम्मिलित हो जाता है, परन्तु ललित साहित्य के लिए इतना जोड़ा जा सकता है कि मनुष्य के अनुभवों और विचारों की भावात्मक अभिव्यक्ति साहित्य है।

यह भावात्मक अभिव्यक्ति शब्दबद्ध होकर साहित्य को शक्ति प्रदान करती है, जिसके कारण एक व्यक्ति के अनुभव सार्वजनिक बन जाते हैं और सभी को प्रभावित करने में समर्थ रहते हैं। साहित्य रत्तना का उद्देश्य मानव समाज का हित-चिन्तन करना तथा उसकी चेतना का पोषण करना है।

इससे यह सिद्ध होता है कि साहित्य लोक-संग्रह के कारण ही उपयोगी माना जाता है। यदि कोई रचना समाज के लिए उपयोगी नहीं है, तो वह साहित्य की श्रेणी में नहीं आ सकती। वैसे भी बिना उद्देश्य एवं उपयोगिता के रचा गया साहित्य मात्र कूड़ा-कचरा है जो रद्दी के ढेर में विलीन हो जाता है, लेकिन उपयोगी साहित्य अमर बन जाता है। इसलिए साहित्य की कसौटी उपयोगिता ही है। मानव-समाज के लिए साहित्य की उपयोगिता इसलिए भी है कि वह मानव की जिज्ञासा-वृत्ति को शान्त करता है, ज्ञान की पिपासा को तृप्त करता है, मस्तिष्क का। पोषण करता है।

जिस प्रकार पेट की भूख को शान्त करने के लिए भोजन आवश्यक है, उसी प्रकार मस्तिष्क की क्षुधा को मिटाने के लिए साहित्य आवश्यक एवं उपयोगी है। साहित्य के द्वारा मानव-चेतना का प्रसार होने से उसमें शिवत्व की स्थापना होती है। हम अपने राष्ट्रीय इतिहास से अपने देश की गरिमा, अपनी सभ्यता एवं संस्कृति और अपने परम्परागत रीति-रिवाजों, आदर्शों एवं विचारों से परिचित होते हैं।

हमें अपने साहित्य का अनुशीलन करने से पता चलता है कि शताब्दियों पूर्व हमारे देश में कैसा आचार-विचार था, किस प्रादेशिक भाग में कौनसी भाषा बोली जाती थी, कौनसी वेश-भूषा थी, धार्मिक तथा आर्थिक दशा कैसी थी और सामाजिक जीवन किस तरह चल रहा था। इन सब बातों का ज्ञान हमें साहित्य के द्वारा होता है।

उपरोक्त गद्यांश के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नो के उत्तर लिखिए-

(क) साहित्य का स्वरूप कैसा बताया गया है?
उत्तर– साहित्य का स्वरूप लोकहित, व्यवहार-ज्ञान एवं आनन्द-लाभ के कारण शब्दार्थ-युगल होता है। अनुभवों एवं विचारों की भावात्मक शब्दबद्धता साहित्य कहलाता है।

(ख) साहित्य के कौन-से दो रूप माने गये हैं?
उत्तर– साहित्य के दो रूप-उपयोगी साहित्य और ललित साहित्य माने गये हैं।

(ग) भावात्मक अभिव्यक्ति किसे शक्ति प्रदान करती है?
उत्तर– शब्दबद्ध भावात्मक अभिव्यक्ति साहित्य को शक्ति प्रदान करती है, जिससे व्यक्ति के अनुभव सार्वजनिक बन जाते हैं और सभी को प्रभावित करने में समर्थ रहते

(घ) कौनसी रचना साहित्य की श्रेणी में नहीं रखी जा सकती?
उत्तर– जो रचना समाज के लिए उपयोगी नहीं होती है वह साहित्य की श्रेणी में नहीं रखी जा सकती।

(ड) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर– गद्यांश के लिए उचित शीर्षक–साहित्य का स्वरूप एवं उद्देश्य।


02 निम्नलिखित अपठित गद्यांश को ध्यान से पढ़ें और प्रश्नों का उत्तर दें:

‘जनता के साहित्य’ का अर्थ जनता को तुरन्त ही समझ में आने वाले साहित्य से हरगिज नहीं है। अगर ऐसा होता तो ‘किस्सा तोता मैना’ और नौटंकी ही साहित्य के प्रधान रूप होते। साहित्य के अन्दर सांस्कृतिक भाव होते हैं।

सांस्कृतिक भावों को पाने के लिए बुलन्दी बारीकी और खूबसूरती को पहचानने के लिए, उस असलियत को पाने के लिए जिसका नक्शा साहित्य में रहता है, सुनने या पढ़ने वाले की कुछ स्थिति अपेक्षित होती है। वह स्थिति है उसकी शिक्षा, उसके मन के सांस्कृतिक परिष्कार की, जबकि साहित्य का उद्देश्य सांस्कृतिक परिष्कार है, मानसिक परिष्कार है। 

उपरोक्त गद्यांश के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नो के उत्तर लिखिए-

(क) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
उत्तर– उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक ‘जनता के साहित्य का अर्थ’ है।

(ख) जनता के साहित्य का क्या अर्थ है?
उत्तर– जनता के साहित्य का अर्थ है सांस्कृतिक भावों को पाने की सूक्ष्म पहचान एवं जनता के सांस्कृतिक और मानसिक परिष्कार की स्थिति को प्राप्त करने वाला साहित्य।

(ग) सांस्कृतिक भावों को ग्रहण करने के लिए क्या जरूरी है?
उत्तर– सांस्कृतिक भावों को ग्रहण करने के लिए सुनने वाले की शिक्षा उसके मन का सांस्कृतिक और मानसिक परिष्कार जरूरी है।

(घ) साहित्य के अन्दर क्या होता है?
उत्तर– साहित्य के अन्दर सांस्कृतिक भाव निहित होते हैं।

(ड) साहित्य का उद्देश्य क्या है?
उत्तर– साहित्य का उद्देश्य है सांस्कृतिक और मानसिक परिष्कार ।


03 निम्नलिखित अपठित गद्यांश को ध्यान से पढ़ें और प्रश्नों का उत्तर दें:

हम एक ऐसे सभ्य समाज में जिन्दा हैं जिसमें सभ्यता जैसे-जैसे विकसित हुई वैसे-वैसे आदमी जंगली और नंगा होता गया। सोचो कौन से कारण हैं कि कुछ लोग बहुत से लोगों की रोटियाँ माल गोदामों में बन्द किए हुए हैं। लोग भूख से बिलबिला रहे हैं और उन्हें दामों के बढ़ने का इन्तजार है।

मानवता को रौंदते हुए अपने लाभ के लिए जीवन रक्षक दवाएँ तक नकली बनाने में लगे हुए हैं। कपड़ा मिलों में रात-दिन कपड़ा बनाया जा रहा है और लोग नंगे है। खेतों में फसलें लहलहा रही हैं और किसान आत्महत्याएँ कर रहे हैं। रेखाएँ, रेखा गणित से बाहर आकर गरीबों की बस्तियों में बस गयी हैं। एक को दूसरे की चिन्ता नहीं है। हर आदमी स्वार्थ में अन्धा हो गया है। बर्बरता जंगलीपन की निशानी मानी जाती है, सभ्य समाज और सभ्यता को तो उससे दूर ही रहना चाहिए।

उपरोक्त गद्यांश के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नो के उत्तर लिखिए-

(क) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
उत्तर– उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक ‘बर्बर समाज’ है।

(ख) हम कैसे समाज में जिन्दा हैं?
उत्तर– हम सभ्य समाज में जिन्दा हैं।

(ग) कुछ लोग क्या कर रहे हैं?
उत्तर– कुछ लोग बहुत से लोगों की रोटियाँ मालगोदामों में बन्द किए हुए हैं।

(घ) आदमी स्वार्थ में कैसा हो गया है?
उत्तर– आदमी स्वार्थ में अन्धा हो गया है।

(ड) सभ्य समाज को किससे दूर रहना चाहिए?
उत्तर– सभ्य समाज को जंगलीपन से दूर रहना चाहिए।


Hindi Unseen Passage for Class 11

04 निम्नलिखित अपठित गद्यांश को ध्यान से पढ़ें और प्रश्नों का उत्तर दें:

श्रमदान भारत के लिए कोई भी नई वस्तु नहीं है। यह भावना हमारे देश में बहुत पहले से ही विद्यमान थी। जिस प्रकार हम किसी अभावग्रस्त व्यक्ति को भोजन-वस्त्रादि का दान करते हैं, उसी प्रकार श्रमदान में श्रम से प्राप्त लाभांश किसी व्यक्ति अथवा समाज को दिया जाता है। परन्तु श्रमदान का यह अर्थ संकीर्ण है। विस्तृत अर्थ में यह शब्द एकदम नया है।

इस शब्द का प्रचलन विनोबा भावे के भूदान के साथ हुआ है जिसका मुख्य आधार ‘दानं संविभागः” है, अर्थात् जिनके पास अधिक धन या श्रम है, वे अभावग्रस्त लोगों को अपने पास से कुछ धन या श्रम दें। इस प्रकार के दान एवं समान विभाग में कर्त्तव्य एवं जन-कल्याण की भावना निहित है। ऐसे दान में दान लेने वाले के प्रति तुच्छता की भावना तथा दान देने वाले के लिए। बड़प्पन की भावना नहीं रहती है। न दान देने और लेने वालों के मन में ऐसी भावना जागती है।

समाज में दान के अनेक रूप प्रचलित हैं। उदाहरण के लिए सम्पत्ति दान, विद्यादान, भोजनदान, वस्त्रदान, धनदान, गायदान, जीवनदान, भूदान, श्रमदान आदि। परन्तु इन सभी दानों में श्रमदान का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अन्य दोन जहाँ व्यक्ति को सुलभ न होकर दुर्लभ हैं, वहाँ श्रमदान जन-साधारण को सुलभ है।

इसके लिए किसी विशेष साधन की आवश्यकता नहीं होती है। भोजनदान वही कर सकता है। जिसके पास पर्याप्त मात्रा में भोजन सामग्री हो। परन्तु श्रमदान में श्रमदाता को कोई वस्तु देनी नहीं पड़ती, वरन् वह शरीर की शक्ति का ही दान करता है, जिस पर किसी का कोई अधिकार नहीं होता।

इस प्रकार श्रमदान का महत्त्व सभी दानों से अधिक है, क्योंकि श्रमदान समाज तथा देश की उन्नति का मूल साधन है। जिस कार्य को एक व्यक्ति आसानी से नहीं कर सकता, उसे कई लोगों के द्वारा श्रमदान द्वारा आसानी से किया जा सकता है।

जिन योजनाओं के पूरा करने के लिए लाखों की सम्पत्ति चाहिए और जिनके लिए सरकार या धनवानों को मुंह ताकना पड़ता है, उनमें से बहुत-से कार्य श्रमदान और पारस्परिक सहयोग से सहज हो जाते हैं। यातायात के लिए मार्ग या सड़क का निर्माण करना, पानी के स्रोतों, यथा-कुओं, बावड़ियों एवं पोखरों आदि की सफाई एवं निर्माण करना, जन-कल्याण का कार्य करना, भवननिर्माण करना आदि कार्य श्रमदान द्वारा आसानी से किये जा सकते हैं।

उपरोक्त गद्यांश के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नो के उत्तर लिखिए-

(क) हमारे समाज में दान के कौन-कौनसे रूप प्रचलित हैं?
उत्तर– हमारे समाज में सम्पत्ति दान, विद्यादान, भोजन-दान, वस्त्रदान, धनदान, गायदान, जीवनदान, भूदान, श्रमदान आदि दान के अनेक रूप प्रचलित हैं।

(ख) श्रम-दान का संकीर्ण अर्थ क्या है?
उत्तर– श्रमदान का संकीर्ण अर्थ है-जब श्रमदान में श्रम से प्राप्त लाभांश किसी अभावग्रस्त व्यक्ति अथवा समाज को दिया जावे।

(ग) श्रम-दान शब्द का प्रचलन किसके साथ हुआ? इसका मुख्य आधार क्या है?
उत्तर– श्रमदान शब्द का प्रचलन विनोबा भावे के भूदान आन्दोलने के साथ हुआ, जिसका मुख्य आधार ‘दानं संविभागः’ है।

(घ) श्रमदान से कौन-कौनसे कार्य किये जा सकते हैं?
उत्तर– श्रमदान के कुओं, बावड़ियों एवं पोखरों की सफाई और निर्माण का काम, गाँवों की पगडण्डियों की मरम्मत या सड़क का निर्माण, सामुदायिक विकास के काम किये जा सकते हैं।

(ड) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक बताइए।
उत्तर– गद्यांश के लिए उचित शीर्षक–श्रमदान का महत्त्व।


05 निम्नलिखित अपठित गद्यांश को ध्यान से पढ़ें और प्रश्नों का उत्तर दें:

प्राचीन काल में भारतीय नारी का स्वरूप समादरणीय और अर्धाङ्गिनी रूप में प्रतिष्ठापूर्ण था। यहाँ पहले नारी को लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा का रूप माना जाता था। जिस प्रकार लक्ष्मी धन की, सरस्वती विद्या की और दुर्गा शक्ति की अधिष्ठात्री देवी है, उसी प्रकार नारी को इन तीनों के देवीत्व रूप से मण्डित माना जाता था। फलस्वरूप प्राचीन भारत में नारी को देवी रूप पूज्य था। परन्तु परवर्ती काल में नारी का गौरव कम होने लगा तथा उसे भोग-विलास की वस्तु माना गया। भारत में विधर्मियों और विदेशियों के आक्रमणों से नारी को पर्दाप्रथा, बाल-विवाह, बहु-विवाह, जौहर-प्रथा, सती–प्रथा आदि के द्वारा उत्पीड़न भोगना पड़ा। मध्यकाल में, विशेषकर मुगलों के आगमन से अनेक कुप्रथाओं, रूढ़ियों और अनैतिक-दुराचारों के प्रसार से नारी का जीवन शोषण, उत्पीड़न एवं व्यथा से ग्रस्त बनता गया।

प्रारम्भ में जब नारी के जीवन को त्याग और तपस्या से मण्डित माना जाता था, तब उसके जीवन का पूर्वकाल तपस्या का और उत्तरकाल त्याग का काल था। इन दोनों कालों में वह अच्छे परिवार, श्रेष्ठ पति एवं गुणवान् सन्तान की प्राप्ति में तथा उनकी सुख-सुविधाओं की निरन्तर कामना करने में अपना जीवन समर्पित कर देती थी। परन्तु वैचारिक व्यामोह के कारण पुरुष वर्ग नारी के त्याग, उसकी साधना एवं समर्पणशीलता को उसकी दुर्बलता अथवा विलासिता मानने लगा, फलस्वरूप नारी का जीवन दयनीय बन गया। परन्तु वर्तमान काल में ज्ञान-विज्ञान और स्त्री-शिक्षा का प्रसार होने से नारीचेतना शोषण-उत्पीड़न के विरुद्ध जागृत हो गई है। अब पढ़ी-लिखी नारियाँ अपने पैरों पर खड़ी होकर पुरुष के समान सभी कार्यों में दक्षता दिखा रही हैं। अब समान अधिकारों की परम्परा चलने लगी है। शहरी क्षेत्रों में नारी पर्दा-प्रथा तथा विकृत रूढ़ियों से मुक्त हो गई है, परन्तु ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी सामाजिक कुरीतियाँ प्रचलित हैं। इन कुरीतियों को दूर करने के अनेक उपाय किये जा रहे हैं। इससे नारी जीवन को समुन्नत बनाकर राष्ट्र के उत्थान में उनकी सहभागिता में वृद्धि की जा रही है।

उपरोक्त गद्यांश के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नो के उत्तर लिखिए-

(क) प्राचीन काल में भारतीय नारी का स्वरूप कैसा था?
उत्तर– प्राचीन काल में भारतीय नारी का स्वरूप समादरणीय और अद्भुगिनी रूप में प्रतिष्ठापूर्ण था, उसे सभी धार्मिक कार्यों में सम्मान दिया जाता था।

(ख) प्राचीन काल में नारी को किन-किन रूपों में माना जाता था?
उत्तर– प्राचीन काल में नारी को लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा इन तीनों रूपों में माना जाता था। उसके ये तीनों रूप देवी रूप में पूज्य थे।

(ग) मध्यकाल में भारतीय नारी का जीवन कैसा रहा?
उत्तर– मध्यकाल में भारतीय नारी को पर्दा-प्रथा, बाल-विवाह, बहु-विवाह, जौहरप्रथा, सती–प्रथा आदि के द्वारा उत्पीड़न भोगना पड़ा। उसे भोग-विलास की वस्तु माना जाने लगा।

(घ) प्राचीन काल में नारी जीवन किससे मण्डित माना जाता था?
उत्तर– प्राचीन काल में नारी-जीवन को त्याग और तपस्या से मण्डित माना जाता था। उसके जीवन का पूर्व काल तपस्या का और उत्तर काल त्याग का काल था।

(ड) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक बताइए।
उत्तर– गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक–भारतीय नारी : तब और अब।

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06 निम्नलिखित अपठित गद्यांश को ध्यान से पढ़ें और प्रश्नों का उत्तर दें:

‘भूमि माता है और मैं उसका पुत्र हैं। यह भाव जब सशक्त रूप में जागता है, तब राष्ट्र-निर्माण के स्वर वायुमण्डल में भरने लगते हैं। भूमि के साथ माता और पुत्र का सम्बन्ध स्थापित होने पर उसे पवित्र मातृभूमि का पद दिया जाता है और ‘मातृभूमि को प्रणाम’, ‘माता पृथ्वी को प्रणाम’ यह प्रणाम-भाव भूमि एवं जन को परस्पर दृढ़ता से बाँध देता है। इसी दृढ़-भित्ति पर राष्ट्र का भवन तैयार किया जाता है। इसी दृढ़ चट्टान पर राष्ट्र का चिर जीवन आश्रित रहता है। इसी मर्यादा को मानकर राष्ट्र के प्रति मनुष्यों के कर्तव्य और अधिकारों का उदय होता है। जो जन पृथ्वी के साथ माता और पुत्र के सम्बन्ध को स्वीकार करता है, उसे ही पृथ्वी के वरदानों में भाग पाने का अधिकार है। माता के प्रति अनुराग और सेवाभाव पुत्र का स्वाभाविक कर्तव्य है। वह एक निष्कारण धर्म है। स्वार्थ के लिए पुत्र का माता के प्रति प्रेम, पुत्र के अधःपतन को सूचित करता है। जो जन मातृभूमि के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ना चाहता है उसे अपने कर्तव्यों के प्रति पहले ध्यान देना चाहिए।

माता अपने सब पुत्रों को समान भाव से चाहती है। इसी प्रकार पृथ्वी पर बसने वाले जन बराबर हैं। उनमें ऊँच और नीच का भाव नहीं है। जो मातृभूमि के हृदय के साथ जुड़ा हुआ है वह समान अधिकार का भागी है। पृथ्वी पर निवास करने वाले जनों का विस्तार अनन्त है::’”‘नगर और जनपद, पुर और गाँव, जंगल और पर्वत नाना प्रकार के जनों से भरे हुए हैं। ये जन अनेक प्रकार की भाषाएँ बोलने वाले और अनेक धर्मों के मानने वाले हैं, फिर भी वे मातृभूमि के पुत्र हैं और इस कारण उनका सौहार्द भाव अखण्ड है। सभ्यता और रहन-सहन की दृष्टि से जन एक-दूसरे से आगे-पीछे हो सकते हैं, किन्तु इस कारण से मातृभूमि के साथ उनको जो सम्बन्ध है उसमें कोई भेदभाव उत्पन्न नहीं हो सकता। पृथ्वी के विशाल प्रांगण में सब जातियों के लिए समान क्षेत्र है। समन्वय के मार्ग से भरपूर प्रगति और उन्नति करने का सबको एक जैसा अधिकार है। किसी जन को पीछे छोड़कर राष्ट्र आगे नहीं बढ़ सकता। अतएव समग्र राष्ट्र जागरण और प्रगति की एक जैसी उदार भावना से संचालित होना चाहिए।

उपरोक्त गद्यांश के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नो के उत्तर लिखिए-

(क) राष्ट्र रूपी भवन का निर्माण किस पर खड़ा होता है?
उत्तर– ‘भूमि हमारी माता है और हम इसके पुत्र हैं’–इस तरह की भावना रखने से मातृभूमि के प्रति नागरिकों में जो दृढ़ अपनत्व भाव जागृत होता है, उसी आधार पर राष्ट्र रूपी भवन का निर्माण होता है।

(ख) किस मर्यादा को मानकर राष्ट्र के प्रति मनुष्यों के कर्त्तव्य और अधिकारों का उदय होता है?
उत्तर– भूमि माता है और मैं उसका पुत्र हूँ। इसी मर्यादा को मानकर राष्ट्र के प्रति मनुष्यों के कर्तव्य और अधिकारों के सम्यग् निर्वाह का उदय होता है।

(ग) पृथ्वी पर रहने वाले जनों का सौहार्द भाव किस कारण अखण्ड
उत्तर– पृथ्वी पर रहने वाले जन अनेक प्रकार की भाषाएँ बोलते हैं और अनेक धर्मों को मानते हैं, लेकिन वे हर स्थिति में मातृभूमि के पुत्र होने के कारण उनका सौहार्द भाव अखण्ड है।

(घ) किस जन को सर्वप्रथम अपने कर्तव्यों पर ध्यान देना चाहिए?
उत्तर– जो जन : भूमि माती है और मैं उसका पुत्र हैं’ के भाव से पूरित होकर मातृभूमि के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ना चाहता है, उसे सर्वप्रथम अपने कर्तव्य पर ध्यान देना चाहिए।

(ड) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक बताइये।
उत्तर– गद्यांश का उचित शीर्षक–राष्ट्र निर्माण के तत्त्व।


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07 निम्नलिखित अपठित गद्यांश को ध्यान से पढ़ें और प्रश्नों का उत्तर दें:

सुचारित्र्य के दो सशक्त स्तंभ हैं-प्रथम सुसंस्कार और द्रवितीय सत्संगति। सुसंस्कार भी पूर्व जीवन की सत्संगति व सत्कर्मों की अर्जित संपत्ति है और सत्संगति वर्तमान जीवन की दुर्लभ विभूति है। जिस प्रकार कुधातु की कठोरता और कालिख पारस के स्पर्श मात्र से कोमलता और कमनीयता में बदल जाती है, ठीक उसी प्रकार कुमार्गी का कालुष्य सत्संगति से स्वर्णिम आभा में परिवर्तित हो जाता है। सतत सत्संगति से विचारों को नई दिशा मिलती है और अच्छे विचार मनुष्य को अच्छे कार्यों में प्रेरित करते हैं।

परिणामतः सुचरित्र का निर्माण होता है। आचार्य हजारीप्रसाद विवेदी ने लिखा है-महाकवि टैगोर के पास बैठने मात्र से ऐसा प्रतीत होता था, मानो भीतर का देवता जाग गया हो। वस्तुत. चरित्र से ही जीवन की सार्थकता है। चरित्रवान व्यक्ति समाज की शोभा है. शक्ति है। सुचारित्र्य से व्यक्ति ही नहीं, समाज भी सुवासित होता है और इस सुवास से राष्ट्र यशस्वी बनता है। विदुर जी की उक्ति अक्षरशः सत्य है कि सुचरित्र के बीज हमें भले ही वंश परंपरा से प्राप्त हो सकते हैं, पर चरित्र-निर्माण व्यक्ति के अपने बलबूते पर निर्भर है।

आनुवंशिक परंपरा, परिवेश और परिस्थिति उसे केवल प्रेरणा दे सकते हैं, पर उसका अर्जन नहीं कर सकते, वह व्यक्ति को उत्तराधिकार में प्राप्त नहीं होता। व्यक्ति-विशेष के शिथिल-चरित्र होने से पूरे राष्ट्र पर चरित्र-संकट उपस्थित हो जाता है, क्योंकि व्यक्ति पूरे राष्ट्र का एक घटक है। अनेक व्यक्तियों से मिलकर एक परिवार, अनेक परिवारों से एक कुल, अनेक कुलों से एक जाति या समाज और अनेकानेक जातियों और समाज समुदायों से मिलकर ही एक राष्ट्र बनता है।

उपरोक्त गद्यांश के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नो के उत्तर लिखिए-

(क) सत्संगति कुमार्गी को कैसे सुधारती है? सोदाहरण स्पष्ट कीजिए।
उत्तर– सत्संगति से विचारों को नई दिशा मिलती है और अच्छे विचार मनुष्य को अच्छे कार्यों में प्रेरित करते हैं। इससे कुमार्गी व्यक्ति उसी तरह सुधर जाता है, जैसे पारस के संपर्क में आने से लोहा सोना बन जाता है।

(ख) चरित्र के बारे में विदुर के क्या विचार हैं?
उत्तर– चरित्र के बारे में विदुर का विचार है कि अच्छे चरित्र के बीज वंश-परंपरा से मिल जाते हैं, परंतु चरित्र-निर्माण व्यक्ति को स्वयं करना पड़ता है। सुचरित्र कभी उत्तराधिकार में नहीं मिलता।

(ग) व्यक्ति विशेष का चरित्र समूचे राष्ट्र को कैसे प्रभावित करता है?
उत्तर– यदि व्यक्ति-विशेष का चरित्र कमजोर हो, तो पूरे राष्ट्र के चरित्र पर संकट उपस्थित हो जाता है, क्योंकि व्यक्ति पूरे राष्ट्र का एक आचरक घटक होता है।

(घ) व्यक्ति के चरित्र-निर्माण में किस-किस का योगदान होता है तथा व्यक्ति सुसंस्कृत कैसे बनता है?
उत्तर– व्यक्ति के चरित्र के निर्माण में सुसंस्कार, सत्संगति परिवार, कुल, जाति, समाज आदि का योगदान होता है। व्यक्ति में अच्छे संस्कारों व सत्संगति से अच्छे गुणों का विकास होता है। इस कारण व्यक्ति सुसंस्कृत बनता है।

(ड) संगति के संदर्भ में पारस के उल्लेख से लेखक क्या प्रतिपादित करना चाहता है?
उत्तर– संगति के संदर्भ में लेखक ने पारस का उल्लेख किया है। पारस के संपर्क में आने से हर किस्म का लोहा सोना बन जाता है, इसी तरह अच्छी संगति से हर तरह का बुरा व्यक्ति भी अच्छा बन जाता है।

(च) किसी व्यक्ति-विशेष के शिधिल-चरित्र होने से राष्ट्र की क्या क्षति होती है?
उत्तर– किसी व्यक्ति विशेष के शिथिल चरित्र होने पर संपूर्ण राष्ट्र के चरित्र पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, क्योंकि व्यक्तियों के समूह से ही किसी राष्ट्र का निर्माण होता है। इस प्रकार व्यक्ति राष्ट्र का एक आचरक घटक है। अत राष्ट्रीय चरित्र किसी राष्ट्र के संपूर्ण व्यक्तियों के चरित्र का समावेशित रूप है। निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि किसी एक व्यक्ति के शिथिल-चरित्र होने पर राष्ट्रीय चरित्र की क्षति होती है।


08 निम्नलिखित अपठित गद्यांश को ध्यान से पढ़ें और प्रश्नों का उत्तर दें:

कुछ लोगों को अपने चारों ओर बुराइयाँ देखने की आदत होती है। उन्हें हर अधिकारी भ्रष्ट, हर नेता बिका हुआ और हर आदमी चोर दिखाई पड़ता है। लोगों की ऐसी मनःस्थिति बनाने में मीडिया का भी हाथ है। माना कि बुराइयों को उजागर करना मीडिया का दायित्व है, पर उसे सनसनीखेज़ बनाकर 24 x 7 चैनलों में बार-बार प्रसारित कर उनकी चाहे दर्शक-संख्या (TRP) बढ़ती हो, आम आदमी इससे अधिक शंकालु हो जाता है और यह सामान्यीकरण कर डालता है कि सभी ऐसे हैं। आज भी सत्य और ईमानदारी का अस्तित्व है। ऐसे अधिकारी हैं, जो अपने सिद्धांतों को रोजी-रोटी से बड़ा मानते हैं। ऐसे नेता भी हैं, जो अपने हित की अपेक्षा जनहित को महत्त्व देते हैं।

वे मीडिया-प्रचार के आकांक्षी नहीं हैं। उन्हें कोई इनाम या प्रशंसा के सर्टीफ़िकेट नहीं चाहिए, क्योंकि उन्हें लगता है कि वे कोई विशेष बात नहीं कर रहे, बस कर्तव्यपालन कर रहे हैं। ऐसे कर्तव्यनिष्ठ नागरिकों से समाज बहुत-कुछ सीखता है। आज विश्व में भारतीय बेईमानी या भ्रष्टाचार के लिए कम, अपनी निष्ठा, लगन और बुद्धि-पराक्रम के लिए अधिक जाने जाते हैं। विश्व में अग्रणी माने जाने वाले देश का राष्ट्रपति बार-बार कहता सुना जाता है कि हम भारतीयों-जैसे क्यों नहीं बन सकते। और हम हैं कि अपने को ही कोसने पर तुले हैं! यदि यह सच है कि नागरिकों के चरित्र से समाज और देश का चरित्र बनता है, तो क्यों न हम अपनी सोच को सकारात्मक और चरित्र को बेदाग बनाए रखने की आदत डालें।

उपरोक्त गद्यांश के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नो के उत्तर लिखिए-

(क) उपर्युक्त गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर– शीर्षक-मीडिया का चरित्र निर्माण में योगदान।

(ख) लेखक ने क्यों कहा है कि कुछ लोगों को अपने चारों ओर बुराइयाँ देखने की आदत है ?
उत्तर– लेखक कहता है कि कुछ लोगों को अपने चारों ओर बुराइयाँ देखने की आदत है। ऐसा उनकी नकारात्मक विचारधारा के कारण होता है। उन्हें हर जगह बुराई दिखाई देती है।

(ग) लोगों की सोच को बनाने-बदलने में मीडिया की क्या भूमिका है?
उत्तर– मीडिया लोगों की सोच को बनाने-बदलने में विशेष भूमिका अदा करती है। वे अच्छाई को बार-बार बताकर आम आदमी की मन:स्थिति को बदल देते हैं।

(घ) अपनी टी०आर०पी० बढ़ाने के लिए कुछ चैनल क्या करते हैं ? उसका आम नागारिक पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर– अपनी टी०आर०पी० बढ़ाने के लिए कुछ चैनल बुराइयों को सनसनीखेज बनाकर उसे लगातार प्रसारित करते हैं। इससे लोगों के मन में संदेह उत्पन्न हो जाता है।

(ड़) आज दुनिया में भारतीय किन गुणों के लिए जाने जाते हैं ?
उत्तर– दुनिया में भारतीय अपने मेहनत, लगन व पराक्रम के लिए प्रसिद्ध हैं।

(च) किसी संपन्न देश के राष्ट्रपति का अपने नागारिकों से भारतीयों-जैसा बनने के लिए कहना क्या सिद्ध करता है?
उत्तर– किसी विकसित देश के राष्ट्रपति द्वारा अपने नागरिकों को भारतीयों जैसे बनने की प्रेरणा देना यह सिद्ध करता है कि भारतीय कर्तव्यनिष्ठ हैं।


अपठित गद्यांश कक्षा 11 हिंदी mcq

09 निम्नलिखित अपठित गद्यांश को ध्यान से पढ़ें और प्रश्नों का उत्तर दें:

भारत प्राचीनतम संस्कृति का देश है। यहाँ दान पुण्य को जीवनमुक्ति का अनिवार्य अंग माना गया है। जब दान देने को धार्मिक कृत्य मान लिया गया तो निश्चित तौर पर दान लेने वाले भी होंगे। हमारे समाज में भिक्षावृत्ति की ज़िम्मेदारी समाज के धर्मात्मा, दयालु व सज्जन लोगों की है। भारतीय समाज में दान लेना व दान देना-दोनों धर्म के अंग माने गए हैं। कुछ भिखारी खानदानी होते हैं क्योंकि पुश्तों से उनके पूर्वज धर्म स्थानों पर अपना अड्डा जमाए हुए हैं।

कुछ भिखारी अंतर्राष्ट्रीय स्तर के हैं जो देश में छोटी-सी विपत्ति आ जाने पर भीख का कटोरा लेकर भ्रमण के लिए निकल जाते हैं। इसके अलावा अनेक श्रेणी के और भी भिखारी होते हैं। कुछ भिखारी परिस्थिति से बनते हैं तो कुछ बना दिए जाते हैं। कुछ शौकिया भी। इस व्यवसाय में आ गए हैं। जन्मजात भिखारी अपने स्थान निश्चित रखते हैं। कुछ भिखारी अपनी आमदनी वाली जगह दूसरे भिखारी को किराए पर देते हैं।

आधुनिकता के कारण अनेक वृद्ध मज़बूरीवश भिखारी बनते हैं। गरीबी के कारण बेसहारा लोग भीख माँगने लगते हैं। काम न मिलना भी भिक्षावृत्ति को जन्म देता है। कुछ अपराधी बच्चों को उठा ले जाते हैं तथा उनसे भीख मँगवाते हैं। वे इतने हैवान हैं कि भीख माँगने के लिए बच्चों का अंग-भंग भी कर देते हैं। भारत में भिक्षा का इतिहास बहुत पुराना है। देवराज इंद्र व विष्णु श्रेष्ठ भिक्षुकों में थे।

इंद्र ने कर्ण से अर्जुन की रक्षा के लिए उनके कवच व कुंडल ही भीख में माँग लिए। विष्णु ने वामन अवतार लेकर भीख माँगी। धर्मशास्त्रों ने दान की महिमा का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया जिसके कारण भिक्षावृत्ति को भी धार्मिक मान्यता मिल गई। पूजा-स्थल, तीर्थ, रेलवे स्टेशन, बसस्टैंड, गली-मुहल्ले आदि हर जगह भिखारी दिखाई देते हैं। इस कार्य में हर आयु का व्यक्ति शामिल है।

साल-दो साल के दुध मुँहे बच्चे से लेकर अस्सी-नब्बे वर्ष के बूढ़े तक को भीख माँगते देखा जा सकता है। भीख माँगना भी एक कला है, जो अभ्यास या सूक्ष्म निरीक्षण से सीखी जा सकती है। अपराधी बाकायदा इस काम की ट्रेनिंग देते हैं। भीख रोकर, गाकर, आँखें दिखाकर या हँसकर भी माँगी जाती है। भीख माँगने के लिए इतना आवश्यक है कि दाता के मन में करुणा जगे। अपंगता, कुरूपता, अशक्तता, वृद्धावस्था आदि देखकर दाता करुणामय होकर परंपरानिर्वाह कर पुण्य प्राप्त करता है।

उपरोक्त गद्यांश के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नो के उत्तर लिखिए-

(क) गद्यांश का समुचित शीर्षक दीजिए।
उत्तर– शीर्षक-भिक्षावृत्ति एक व्यवसाय।

(ख) “भारत में भिक्षा का इतिहास प्राचीन है”-सप्रमाण सिद्ध कीजिए।
उत्तर– भारत में भिक्षावृत्ति का इतिहास पुराना है। देवराज इंद्र व विष्णु श्रेष्ठ भिक्षुकों में हैं। इंद्र ने अर्जुन की रक्षा के लिए कर्ण से कवच व कुंडल की भिक्षा माँगी जबकि विष्णु ने वामन अवतार में भीख माँगी। धर्मशास्त्रों से भिक्षावृत्ति को धार्मिक मान्यता मिली।

(ग) “भीख माँगना एक कला है”-इस कला के विविध रूपों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर– भीख माँगना एक कला है जो अभ्यास व सूक्ष्म निरीक्षण से सीखी जाती है। रोकर, गाकर, आँखें दिखाकर या हँसकर, अपंगता, अशक्तता आदि के जरिए दूसरे के मन में करुणा जगाकर भीख माँगी जाती है।

(घ) समाज में भिक्षावृत्ति बढ़ाने में हमारी मान्यताएँ किस प्रकार सहायक होती हैं?
उत्तर– भिक्षावृत्ति बढ़ाने में हमारी धार्मिक मान्यताएँ सहायक हैं। भारत में दान देना व लेना दोनों धर्म के अंग माने गए हैं। दान-पुण्य को जीवनमुक्ति का अनिवार्य अंग माना गया है। अतः भिक्षुकों का होना लाजिमी है।

(ड़) भिखारी व्यवसाय के विभिन्न स्वरूपों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर– भिखारी व्यवसाय में कुछ भिखारी खानदानी हैं जो कई पीढ़ियों से धर्मस्थानों पर अपना अड्डा जमाए हुए हैं। कुछ अंतर्राष्ट्रीय भिखारी हैं जो देश में छोटी-सी विपत्ति आने पर भीख माँगने विदेश चले जाते हैं। कुछ परिस्थितिवश तथा कुछ अपराधियों द्वारा बना दिए जाते हैं। कुछ शौकिया भिखारी भी होते हैं।

(च) भिखारी दाता के मन में किस भाव को जगाते हैं और क्यों?
उत्तर– भिखारी अपनी अशक्तता, कुरूपता, अपंगता, वृद्धावस्था आदि के जरिए दाता के मन में करुणाभाव जगाते हैं ताकि वे दान देकर अपनी परंपरा का निर्वाह कर सकें।


10 निम्नलिखित अपठित गद्यांश को ध्यान से पढ़ें और प्रश्नों का उत्तर दें:

सभी मनुष्य स्वभाव से ही साहित्य-स्रष्टा नहीं होते, पर साहित्य-प्रेमी होते हैं। मनुष्य का स्वभाव ही है सुंदर देखने का। घी का लड्डू टेढ़ा भी मीठा ही होता है, पर मनुष्य गोल बनाकर उसे सुंदर कर लेता है। मूर्ख-से-मूर्ख हलवाई के यहाँ भी गोल लड्डू ही प्राप्त होता है; लेकिन सुंदरता को सदा-सर्वदा तलाश करने की शक्ति साधना के द्वारा प्राप्त होती है। उच्छृखलता और सौंदर्य-बोध में अंतर है।

बिगड़े दिमाग का युवक परायी बहू-बेटियों के घूरने को भी सौंदर्य-प्रेम कहा करता है, हालाँकि यह संसार की सर्वाधिक असुंदर बात है। जैसा कि पहले ही बताया गया है, सुंदरता सामंजस्य में होती है और सामंजस्य का अर्थ होता है, किसी चीज़ का बहुत अधिक और किसी का बहुत कम न होना। इसमें संयम की बड़ी ज़रूरत है। इसलिए सौंदर्य-प्रेम में संयम होता है, उच्छृखलता नहीं।

इस विषय में भी साहित्य ही हमारा मार्ग-दर्शक हो सकता है। जो आदमी दूसरों के भावों का आदर करना नहीं जानता उसे दूसरे से भी सद्भावना की आशा नहीं करनी चाहिए। मनुष्य कुछ ऐसी जटिलताओं में आ फँसा है कि उसके भावों को ठीक-ठीक पहचानना हर समय सुकर नहीं होता। ऐसी अवस्था में हमें मनीषियों के चिंतन का सहारा लेना पड़ता है। इस दिशा में साहित्य के अलावा दूसरा उपाय नहीं है।

मनुष्य की सर्वोत्तम कृति साहित्य है और उसे मनुष्य पद का अधिकारी बने रहने के लिए साहित्य ही एकमात्र सहारा है। यहाँ साहित्य से हमारा मतलब उसकी सब तरह ही सात्त्विक चिंतन-धारा से है।

उपरोक्त गद्यांश के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नो के उत्तर लिखिए-

(क) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर– शीर्षक-साहित्य और सौंदर्य-बोध।

(ख) साहित्य स्रष्टा और साहित्य प्रेमी से क्या तात्पर्य है?
उत्तर– साहित्य स्रष्टा वे व्यक्ति होते हैं जो साहित्य का सृजन करते हैं। साहित्य प्रेमी साहित्य का आस्वादन करते हैं।

(ग) लड्डू का उदाहरण क्यों दिया गया है?
उत्तर– लेखक ने लड्डू का उदाहरण मनुष्य के सौंदर्य प्रेम के संदर्भ में दिया है। लड्डू की तासीर मीठी होती है चाहे वह गोल हो या टेढ़ा-मेढ़ा परंतु मनुष्य उन्हें गोल बनाकर उसके सौंदर्य को बढ़ा देता है।

(घ) लेखक ने संसार की सबसे बुरी बात किसे माना है और क्यों?
उत्तर– लेखक ने संसार की सबसे बुरी बात परायी बहू-बेटियों को घूरना बताया है क्योंकि यह सौंदर्य बोध के नाम पर उच्छृखलता है।

(ड़) जीवन में संयम की ज़रूरत क्यों है ?
उत्तर– जीवन में संयम की ज़रूरत है क्योंकि संयम से ही सामंजस्य का भाव उत्पन्न होता है जिससे मनुष्य दूसरों की भावना का आदर कर सकता है।

(च) हमें विद्वानों के चिंतन की आवश्यकता क्यों पड़ती है?
उत्तर– हमें विद्वानों के चिंतन की आवश्यकता पड़ती है क्योंकि जीवन की जटिलताओं में फँसने के कारण हम दूसरे के भावों को सही से नहीं समझ पाते। साहित्य ही इस समस्या का समाधान है।


11 निम्नलिखित अपठित गद्यांश को ध्यान से पढ़ें और प्रश्नों का उत्तर दें:

फिजूलखर्ची एक बुराई है, लेकिन ज्यादातर मौकों पर हम इसे भोग, अय्याशी से जोड़ लेते हैं। फिजूलखर्ची के पीछे बारीकी से नज़र डालें तो अहंकार नज़र आएगा। अहं को प्रदर्शन से तृप्ति मिलती है। अहं की पूर्ति के लिए कई बार बुराइयों से रिश्ता भी जोड़ना पड़ता है।

अहंकारी लोग बाहर से भले ही गम्भीरता का आवरण ओढ़ लें, लेकिन भीतर से वे उथलेपन और छिछोरेपन से भरे रहते हैं। जब कभी समुद्र तट पर जाने का मौका मिले, तो देखिएगा लहरें आती हैं, जाती हैं और यदि चट्टानों से टकराती हैं तो पत्थर वहीं रहते हैं, लहरें उन्हें भिगोकर लौट जाती हैं। हमारे भीतर हमारे आवेगों की लहरें हमें ऐसे ही टक्कर देती हैं।

इन आवेगों, आवेशों के प्रति अडिग रहने का अभ्यास करना होगा, क्योंकि अहंकार यदि लम्बे समय टिकने की तैयारी में आ जाए तो वह नए-नए तरीके ढूँढे़गा। स्वयं को महत्त्व मिले अथवा स्वेच्छाचारिता के प्रति आग्रह, ये सब फिर सामान्य जीवनशैली बन जाती है। ईसा मसीह ने कहा है – मैं उन्हें धन्य कहूँगा, जो अंतिम हैं।

आज के भौतिक युग में यह टिप्पणी कौन स्वीकारेगा, जब नम्बर वन होने की होड़ लगी है। ईसा मसीह ने इसी में आगे जोड़ा है कि ईश्वर के राज्य में वही प्रथम होंगे, जो अंतिम हैं और जो प्रथम होने की दौड़ में रहेंगे, वे अभागे रहेंगे। यहाँ अंतिम होने का संबंध लक्ष्य और सफलता से नहीं है। जीसस ने विनम्रता, निरहंकारिता को शब्द दिया है ‘अंतिम’। आपके प्रयास व परिणाम प्रथम हों, अग्रणी रहें, पर आप भीतर से अंतिम हों यानि विनम्र, निरहंकारी रहें। वरना अहं अकारण ही जीवन के आनंद को खा जाता है।

उपरोक्त गद्यांश के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नो के उत्तर लिखिए-

(क) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।

(ख) ‘अंतिम’ शब्द का अभिप्राय स्पष्ट करें।

(ग) फिजूलखर्ची को सूक्ष्म दृष्टि से क्या कहा गया है?

(घ) अहंकारी व्यक्तियों की किन कमियों की ओर संकेत किया गया है?

(ड़) ‘निरहंकारिता’ शब्द में उपसर्ग और प्रत्यय छाँटिए।


12 निम्नलिखित अपठित गद्यांश को ध्यान से पढ़ें और प्रश्नों का उत्तर दें:

जीवन में जब भी कोई उपलब्धि होती है तो उसे दो दृष्टि से देखें। सांसारिक उपलब्धि में परिश्रम और समर्पण के साथ क्रमिक स्थितियाँ बनती हैं और तब एक दिन सफलता मिलती है। अध्यात्म में प्रेम और प्रार्थना के साथ स्थितियाँ आरम्भ होती हैं, लेकिन जो उपलब्धि होती है, तब अचानक छलांग-सी लग जाती है। ऐसा लगता है जैसे कोई विस्फोट हो गया हो।

यहाँ की सफलता एक हार्दिक दशा है। संसार की सफलता भौतिक स्थिति है। सुंदरकाण्ड में हनुमान जी माता सीता से मिलकर लंका से लौटे और जिन वानरों को समुद्र तट पर छोड़ कर गए थे, उनसे फिर मिले। यहाँ तुलसीदास जी ने लिखा-हरषे सब बिलोक हनुमाना। नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना। मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा। कीन्हेसि रामचंद्र कर काजा।। हनुमान जी को देखकर सब हर्षित हो गए।

और वानरों ने अपना नया जन्म समझा। हनुमान जी का मुख प्रसन्न है और शरीर में तेज विराजमान है। ये श्रीरामचन्द्र जी का कार्य कर आए हैं। मिले सकल अति भए सुखारी। तलफत मीन पाव जिमि बारी।। सब हनुमान जी से मिले और बहुत ही सुखी हुये, जैसे तड़पती हुई मछली को जल मिल गया हो। इस समय हनुमान जी के मुख पर प्रसन्नता और तेज था।

हनुमान जी बताते हैं कि कितना ही बड़ा काम करके लौटें, अपनी प्रसन्नता को समाप्त न करें। हमारे साथ उल्टा होता है। हम बड़ा और अधिक काम कर लें तो अपनी थकान व चिड़चिड़ाहट दूसरों पर उतारने लगते हैं। इसलिए खुश रहना आसान है, लेकिन दूसरों को खुश रखना कठिन है। हनुमान जी से सीखा जाए – खुश रहें और खुश रखें।

उपरोक्त गद्यांश के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नो के उत्तर लिखिए-

(क) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।

(ख) जीवन की उपलब्धियों को किन-किन दृष्टियों से देखने की जरूरत है?

(ग) आध्यात्मिक और सांसारिक सफलताओं में क्या अन्तर है?

(घ) प्रस्तुत गद्यांश में निहित संदेश बताइए।

(ड़) गद्यांश में निहित उद्देश्य और सामान्य मनुष्य की सोच में क्या अन्तर होता है?


अपठित गद्यांश कक्षा 11 हिंदी

13 निम्नलिखित अपठित गद्यांश को ध्यान से पढ़ें और प्रश्नों का उत्तर दें:

प्लास्टिक बैग सामान लाने के लिये एक बहुत ही सुविधाजनक साधन है और यह हमारे आधुनिक जीवन का एक अभिन्न अंग बन चुका है। हम लगभग प्रतिदिन ही इनका उपयोग करते है और जब दुकानदार द्वारा हमें बताया जाता है कि इनका उपयोग प्रतिबंधित कर दिया गया है और हमे अपना खुद का बैग लाना होगा या कपड़े का बैग खरीदना होगा तो हममें से कई लोग इस बात को लेकर नाराज भी हो जाते है। हम इस बात को समझने में नाकाम हो जाते है कि सरकार ने हमारी भलाई के लिए ही इन प्लास्टिक बैगों पर प्रतिबंध लगाया है।

यहा कुछ कारण बताये गये है कि क्यों हमें प्लास्टिक बैगों का उपयोग बंद करना चाहिये और पर्यावरण के अनूकुल दूसरे विकल्पो को अपनाना चाहीए।

प्लास्टिक बैग एक नान-बायोग्रेडिबल पदार्थ है, इसलिये इनका उपयोग अच्छा नही माना जाता है क्योंकि इनका उपयोग करने से भारी मात्रा में अपशिष्ट इकठ्ठा हो जाता है। यह इस्तेमाल करके फेंक दिए जाने वाले प्लास्टिक बैग निस्तारण के लिए भी एक गंभीर समस्या है। यह छोटे-छोटे टुकड़ो में टुट जाते है और वातावरण में हजारो वर्षो तक बने रहकर प्रदूषण फैलाते है।

प्लास्टिक काफी हल्का होता है और लोगो द्वारा उपयोग करके इधर-उधर फेंक दिया जाता है, जिससे यह हवा द्वारा उड़कर जल स्त्रोतो में पहुंच जाते है। इसके अलावा पैक्ड खाद्य पदार्थ भी प्लास्टिक पैकिंग में आते है और जो व्यक्ति पिकनिक और कैंपिग के लिये जाते है तो इन खराब प्लास्टिक बैगों को वही फेंक देते है, जिससे यह आप पास के समुद्रो और नदियों में मिलकर जल प्रदूषण जैसी गंभीर समस्या उत्पन्न करता है।

प्लास्टिक बैग में मौजूद विभिन्न रसायन मिट्टी को दूषित कर देते है। ये मिट्टी को बंजर बना देता है, जिससे पेड़-पौधो की वृद्धि रुक जाती है। इसेक साथ ही यह खेती को भी प्रभावित करता है जो हमारे देश में रोजगार का सबसे बड़ा क्षेत्र है।

जानवर प्लास्टिक बैग और फेंके गये खाने में फर्क नही समझ पाते है, जिससे वह कचरे के डिब्बो या जगहो से फेंके गये भोजन के साथ प्लास्टिक को भी खा लेते है और यह उनके पाचन तंत्र में फंस जाता है तथा ज्यादे मात्रा में प्लास्टिक खा लेने पर यह उनके गले में फस जाता है जिससे दम घुटने से उनकी मृत्यु हो जाती है। इसके आलावा छोटे-छोटे मात्रा में उनके द्वारा जो प्लास्टिक खाया जाता है वह उनके पेंट में इकठ्ठा हो जाता है, जिससे यह जानवरो में कई तरह के बीमारियों का कारण बनता है।

प्लास्टिक बैग ज्यादेतर पोलीप्रोपलाईन से बने होते है जोकि पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस से बनता है। यह दोनो ही अनवकरणीय जीवाश्म ईंधन है और इनके निष्कर्षण से ग्रीन हाउस गैसे उत्पन्न होती है, जिससे ग्लोबल वार्मिंग जैसी गंभीर समस्या उत्पन्न हो जाती है।

यद्यपि प्लास्टिक बैग हमारे दैनिक जीवन का अभिन्न अंग बन गये है, लेकिन फिर भी इनका उपयोग रोकना इतना कठिन नही है, जितना की यह दिखता है। सरकार द्वारा हमारे देश के कई राज्यो में प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगा दिया गया है लेकिन फिर भी लोग इनका धड़ल्ले से उपयोग कर रहे है और बाजारो में यह अभी भी आसानी से उपलब्ध है।

सरकार को इस विषय को लेकर कड़े फैसले लेने की आवश्यकता है, जिससे की इनका उपयोग बंद किया जा सके। इसके साथ ही एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते यह हमारा कर्तव्य बनता है कि हम इनका उपयोग बंद कर दे। प्लास्टिक प्रतिबंध तभी सफल हो सकता है, जब हममे से हर एक व्यक्ति इनका उपयोग करना बंद कर दे।

प्लास्टिक बैगों के उपयोग से उनका नकरात्मक प्रभाव समय के साथ बढ़ता ही जा रहा है। इनके द्वारा पर्यावरण को होने वाले नुकसानो से तो हम सभी परिचित है। अब अपने पर्यावरण की सुरक्षा के लिये हमें प्लास्टिक उपयोग को बंद करने जैसे बड़े फैसले लेने की आवश्यकता है।

उपरोक्त गद्यांश के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नो के उत्तर लिखिए-

(क) उपरोक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए?
उत्तर– उपरोक्त गद्यांश का उचित शीर्षक ‘प्लास्टिक बैग और प्रदुषण’ है|

(ख) प्लास्टिक बैग का उपयोग क्यों बंद होना चाहिए?
उत्तर– प्लास्टिक बैग का उपयोग निम्न समस्याओं का कारण बन सकता है:-
(1) प्लास्टिक बैग का उपयोग भूमि प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण है|
(2) जल प्रदूषण में वृद्धि करता है|
(3) पेड़-पौधो की वृद्धि को प्रभावित करता है|
(4) प्लास्टिक बैग का उपयोग जानवरो में गंभीर बीमारियां उत्पन्न करता है|
(5) जलवायु परिवर्तन के लिये भी जिम्मेदार है|

(ग) प्लास्टिक बैग जानवरो के जीवन में बिमारियों का करना किस प्रकर बन गए है?
उत्तर– जानवर प्लास्टिक बैग और फेंके गये खाने में फर्क नही समझ पाते है, जिससे वह कचरे के डिब्बो या जगहो से फेंके गये भोजन के साथ प्लास्टिक को भी खा लेते है और यह उनके पाचन तंत्र में फंस जाता है तथा ज्यादे मात्रा में प्लास्टिक खा लेने पर यह उनके गले में फस जाता है जिससे दम घुटने से उनकी मृत्यु हो जाती है। इसके आलावा छोटे-छोटे मात्रा में उनके द्वारा जो प्लास्टिक खाया जाता है वह उनके पेंट में इकठ्ठा हो जाता है, जिससे यह जानवरो में कई तरह के बीमारियों का कारण बनता है।

(घ) प्लास्टिक बैग के उपयोग से किस प्रकार छुटकारा पाया जा सकता है?
उत्तर– सरकार द्वारा हमारे देश के कई राज्यो में प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगा दिया गया है लेकिन फिर भी लोग इनका धड़ल्ले से उपयोग कर रहे है और बाजारो में यह अभी भी आसानी से उपलब्ध है। सरकार को इस विषय को लेकर कड़े फैसले लेने की आवश्यकता है, जिससे की इनका उपयोग बंद किया जा सके। इसके साथ ही एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते यह हमारा कर्तव्य बनता है कि हम इनका उपयोग बंद कर दे। प्लास्टिक प्रतिबंध तभी सफल हो सकता है, जब हममे से हर एक व्यक्ति इनका उपयोग करना बंद कर दे।

(ड़) ‘प्लास्टिक बैग हमारे दैनिक जीवन का अभिन्न अंग है’ स्पष्ट कीजिये?
उत्तर– प्लास्टिक बैग सामान लाने के लिये एक बहुत ही सुविधाजनक साधन है और यह हमारे आधुनिक जीवन का एक अभिन्न अंग बन चुका है। हम लगभग प्रतिदिन ही इनका उपयोग करते है और जब दुकानदार द्वारा हमें बताया जाता है कि इनका उपयोग प्रतिबंधित कर दिया गया है और हमे अपना खुद का बैग लाना होगा या कपड़े का बैग खरीदना होगा तो हममें से कई लोग इस बात को लेकर नाराज भी हो जाते है। हम इस बात को समझने में नाकाम हो जाते है कि सरकार ने हमारी भलाई के लिए ही इन प्लास्टिक बैगों पर प्रतिबंध लगाया है।


14 निम्नलिखित अपठित गद्यांश को ध्यान से पढ़ें और प्रश्नों का उत्तर दें:

दिवाली की पूरी चमक-धमक, जोकि आज के समय में एक बहस और चर्चा का विषय बन गया है। दिवाली के विषय में होने वाली चर्चाओं में मुख्यतः पटाखों के दुष्प्रभावों का मुद्दा छाया रहता है। हाल के शोधों से पता चला है कि जब लोग प्रतिवर्ष पटाखे जलाते हैं तो उससे उत्पन्न होने वाले कचरें के अवशेषों का पर्यावरण पर बहुत ही हानिकारक प्रभाव उत्पन्न होते हैं।

फूटते हुए पटाखें काफी ज्यादा मात्रा में धुआं उत्पन्न करते हैं, जो समान्य वायु में मिश्रित हो जाती है और दिल्ली जैसे शहरों में जहां हवा पहले से ही अन्य कारणों द्वारा काफी प्रदूषित है। जब पटाखों का धुआं हवा के साथ मिलता है तो वह वायु की गुणवत्ता को और भी ज्यादे खराब कर देता है, जिससे की स्वास्थ्य पर इस प्रदूषित वायु का प्रभाव और भी ज्यादे हानिकारक हो जाता है। आतिशबाजी द्वारा उत्पन्न यह छोटे-छोटे कण धुंध में मिल जाते हैं और हमारे फेफड़ो तक पहुंचकर कई सारे बीमारियों का कारण बनते हैं।

पटाखों में बेरियम नाइट्रेट, स्ट्रोंटियम, लिथियम, एंटीमोनी, सल्फर, पोटेशियम और एल्यूमिनियम जैसे हानिकारक रसायन मौजूद होते हैं। यह रसायन हमारे स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा पैदा करते हैं। एंटीमोनी सल्फाइड और एल्यूमीनियम जैसे तत्व अल्जाइमर रोग का कारण बनते है। इसके अलावा पोटेशियम और अमोनियम से बने परक्लोराइट फेफड़ों के कैंसर का भी कारण बनते हैं।

बेरियम नाइट्रेट श्वसन संबंधी विकार, मांसपेशियों की कमजोरी और यहां तक कि गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल जैसी समस्याओं का कारण बनते है तथा कॉपर और लिथियम यौगिक हार्मोनल असंतुलन का भी पैदा कर सकते हैं। इसके साथ ही यह तत्व जानवरों और पौधों के लिए भी हानिकारक हैं।

दिवाली भले ही हम मनुष्यों के लिए एक हर्षोउल्लास का समय हो पर पशु-पक्षियों के लिए यह काफी कठिन समय होता है। जैसा की पालतू जानवरों के मालिक पहले से ही जानते होंगे की कुत्ते और बिल्ली अपने श्रवणशक्ति को लेकर काफी संवेदनशील होते हैं। यही कारण है कि तेज आवाजें सुनकर वह काफी डर जाते हैं और पटाखों द्वारा लगातार उत्पन्न होने वाली तेज आवाजों के कारण यह निरीह प्राणी काफी डरे सहमें रहते हैं।

इस मामले में छुट्टे जानवरों की दशा सबसे दयनीय होती है क्योंकि ऐसे माहौल में उनके पास छुपने की जगह नही होती है। कई सारे लोग मजे लेने के लिए इन जानवरों के पूछ में पटाखें बांधकर जला देते हैं। इसी तरह चिड़िया भी इस तरह की तेज आवाजों के कारण काफी बुरी तरीके से प्रभावित होती हैं, जोकि उन्हें डरा देता हैं। इसके साथ ही पटाखों के तेज प्रकाश के कारण उनके रास्ता भटकने या अंधे होने का भी खतरा बना रहता है।

भलें ही रंग-बिरंगी और तेज आवाजों वाली आतिशबाजियां हमें आनंद प्रदान करती हो, लेकिन उनका हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य, हमारे वायुमंडल तथा इस ग्रह के अन्य प्राणियों पर काफी हानिकारक प्रभाव पड़ता हैं। इनके इन्हीं नकरात्मक प्रभावों को देखते हुए हमें पटाखों के उपयोग को कम करना होगा, क्योंकि हम क्षणिक आनंद हमारे लिए भयंकर दीर्घकालिक दुष्परिणाम उत्पन्न कर सकता है।

उपरोक्त गद्यांश के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नो के उत्तर लिखिए-

(क) उपरोक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए?
उत्तर– उपरोक्त गद्यांश का उचित शीर्षक ‘आतिशबाजी और वायु प्रदुषण’ है|

(ख) पटाखों की आतिशबाजी का वायु पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर– पटाखें काफी ज्यादा मात्रा में धुआं उत्पन्न करते हैं, जो समान्य वायु में मिश्रित हो जाती है और दिल्ली जैसे शहरों में जहां हवा पहले से ही अन्य कारणों द्वारा काफी प्रदूषित है। जब पटाखों का धुआं हवा के साथ मिलता है तो वह वायु की गुणवत्ता को और भी ज्यादे खराब कर देता है, जिससे की स्वास्थ्य पर इस प्रदूषित वायु का प्रभाव और भी ज्यादे हानिकारक हो जाता है।

(ग) पटाखों की आतिशबाजी का मानव स्वस्थ पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर– पटाखों में बेरियम नाइट्रेट, स्ट्रोंटियम, लिथियम, एंटीमोनी, सल्फर, पोटेशियम और एल्यूमिनियम जैसे हानिकारक रसायन मौजूद होते हैं। यह रसायन हमारे स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा पैदा करते हैं। एंटीमोनी सल्फाइड और एल्यूमीनियम जैसे तत्व अल्जाइमर रोग का कारण बनते है।

(घ) आतिशबाजी का जानवरो के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर– जैसा की पालतू जानवरों के मालिक पहले से ही जानते होंगे की कुत्ते और बिल्ली अपने श्रवणशक्ति को लेकर काफी संवेदनशील होते हैं। यही कारण है कि तेज आवाजें सुनकर वह काफी डर जाते हैं और पटाखों द्वारा लगातार उत्पन्न होने वाली तेज आवाजों के कारण यह निरीह प्राणी काफी डरे सहमें रहते हैं। इस मामले में छुट्टे जानवरों की दशा सबसे दयनीय होती है क्योंकि ऐसे माहौल में उनके पास छुपने की जगह नही होती है।

(ड़) ‘पशु-पक्षियों’ शब्द का समास विग्रह कीजिये, समास का नाम बताइये तथा परिभाषा लिखिए|
उत्तर– ‘पशु-पक्षियों’ शब्द का समास विग्रह ‘पशु और पक्षी’ है|, समास का नाम – द्वन्द समास
द्वन्द समास वह समास जिस में दोनों शब्द प्रधान हो तथा समास विग्रह करने पर और, या, अथवा का प्रयोग हो|


अपठित गद्यांश

अपठित साहित्यिक गद्यांश के अंतर्गत गद्य-खंड को पढ़कर उससे संबंधित उत्तर देने होते हैं। ये प्रश्नोत्तर गद्यावतरण के शीर्षक, विषय-वस्तु के बोध एवं भाषिक बिन्दुओं को केन्द्र में रखकर पूछे जाते हैं। इस हेतु विद्यार्थियों को निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए।

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FAQ

उपरोक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए?

उत्तर- उपरोक्त गद्यांश का उचित शीर्षक ‘प्लास्टिक बैग और प्रदूषण’ है।

साहित्य स्रष्टा और साहित्य प्रेमी से क्या तात्पर्य है?

उत्तर- साहित्य स्रष्टा वे व्यक्ति होते हैं जो साहित्य का सृजन करते हैं। साहित्य प्रेमी साहित्य का आस्वादन करते हैं।

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