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Unseen Passage for Class 10 in Hindi अपठित गद्यांश

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Unseen Passage for Class 10
Unseen Passage for Class 10

Unseen Passage for Class 10 in Hindi

अपठित गद्यांश

अपठित’ की परिभाषा – गद्य एवं पद्य का वह अंश जो पहले कभी नहीं पढ़ा गया हो, ‘अपठित’ कहलाता है। दूसरे शब्दों में ऐसा उदाहरण जो पाठ्यक्रम में निर्धारित पुस्तकों से न लेकर किसी अन्य पुस्तक या भाषा-खण्ड से लिया गया हो, अपठित अंश माना जाता है।

अपठित का अर्थ – ‘अ’ का अर्थ है ‘नहीं’ और ‘पठित’ का अर्थ है-‘पढ़ा हुआ’ अर्थात् जो पढ़ा नहीं गया हो । प्रायः शब्द का अर्थ उल्टा करने के लिए उसके आगे ‘अ’ उपसर्ग लगा देते हैं। यहाँ ‘पठित’ शब्द से ‘अपठित’ शब्द का निर्माण ‘अ’ लगने के कारण हुआ है।

अपठित’ का महत्त्व-प्राय – विद्यार्थी पाठ्यक्रम में निर्धारित गद्य व पद्य अंशों को तो हृदयंगम कर लेते हैं, किन्तु जब उन्हें पाठ्यक्रम के अलावा अन्य अंश पढ़ने को मिलते हैं या पढ़ने पड़ते हैं, तो उन्हें उन अंशों को समझने में परेशानी आती है। अतएव अपठित अंश के अध्ययन द्वारा विद्यार्थी सम्पूर्ण भाषा-अंशों के प्रति तो समझ विकसित करता ही है, साथ ही उसे नये-नये शब्दों को सीखने का भी अच्छा अवसर मिलता है। ‘अपठित’ अंश विद्यार्थियों में मौलिक लेखन की भी क्षमता उत्पन्न करता है।

निर्देश – अपठित अंशों पर तीन प्रकार के प्रश्न पूछे जाएँगे

() विषय-वस्तु का बोध – इस प्रकार के प्रश्नों का उत्तर देते समय निम्न बिन्दुओं पर ध्यान देना चाहिए

1. प्रश्नों के उत्तर मूल-अवतरण में ही विद्यमान होते हैं, अतएव, उत्तर मूल-अवतरण में ही ढूँढ़ें, बाहर नहीं। प्रायः प्रश्नों के क्रम में ही मूल-अवतरण में उत्तर विद्यमान रहते हैं, अतएव प्रश्नों के क्रम में उत्तर खोजना सुविधाजनक होता है।

2. प्रश्नों के उत्तर में मूल-अवतरण के शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है, लेकिन भाषा-शैली अपनी ही होनी चाहिए।

3. प्रश्नों के उत्तर प्रसंग और प्रकरण के अनुकूल ही संक्षिप्त, स्पष्ट और सरल भाषा में देने चाहिए। प्रश्नों के उत्तर में अपनी ओर से कुछ भी नहीं जोड़ना चाहिए और न कोई उदाहरण आदि ही देना चाहिए।

() शीर्षक का चुनाव-शीर्षक को चयन करते समय निम्न बातों का ध्यान रखें

  • *शीर्षक अत्यन्त लघु एवं आकर्षक होना चाहिए।
  • *शीर्षक अपठित अंश के मूल तथ्य पर आधारित होना चाहिए।
  • *शीर्षक प्रायः अवतरण के प्रारम्भ या अंत में दिया रहता है, अतः इन अंशों को ध्यानपूर्वक पढ़ना चाहिए।
  • *शीर्षक खोज लेने के बाद जॉच लें कि क्या शीर्षक अपठित में कही गयी बातों की ओर संकेत कर रहा है।

() भाषिक संरचना-इस प्रकार के प्रश्नों के उत्तर के लिए व्याकरण का ज्ञान आवश्यक है।
विशेष-पहले आप पूरे अवतरण को 2-3 बार पढ़कर उसके मर्म को समझने का प्रयास करें। तभी आप उक्त तीनों प्रकार के प्रश्नों के उत्तर सरलतापूर्वक दे पाएँगे। आपके अभ्यास के लिए कुछ अपठित अंश यहाँ दिए जा रहे हैं।


01 निम्नलिखित अपठित काव्यांश को ध्यान से पढ़ें और प्रश्नों का उत्तर दें:

आज किसी भी व्यक्ति का सबसे अलग एक टापू की तरह जीना संभव नहीं रह गया है। भारत में विभिन्न पंथों और विविध मत-मतांतरों के लोग साथ-साथ रह रहे हैं। ऐसे में यह अधिक ज़रूरी हो गया है कि लोग एक-दूसरे को जानें; उनकी ज़रूरतों को, उनकी इच्छाओं-आकांक्षाओं को समझें; उन्हें तरजीह दें और उनके धार्मिक विश्वासों, पद्धतियों, अनुष्ठानों को सम्मान दें। भारत जैसे देश में यह और भी अधिक ज़रूरी है, क्योंकि यह देश किसी एक धर्म, मत या विचारधारा का नहीं है।

स्वामी विवेकानंद इस बात को समझते थे और अपने आचार-विचार में अपने समय से बहुत आगे थे। उनका दृढ़ मत था कि विभिन्न धर्मों-संप्रदायों के बीच संवाद होना ही चाहिए। वे विभिन्न धर्मों-संप्रदायों की अनेकरूपता को जायज़ और स्वाभाविक मानते थे। स्वामी जी विभिन्न धार्मिक आस्थाओं के बीच सामंजस्य स्थापित करने के पक्षधर थे और सभी को एक ही धर्म का अनुयायी बनाने के विरुद्ध थे।

वे कहा करते थे, “यदि सभी मानव एक ही धर्म को मानने लगें, एक ही पूजा-पद्धति को अपना लें और एक-सी नैतिकता का अनुपालन करने लगें, तो यह सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात होगी, क्योंकि यह सब हमारे धार्मिक और आध्यात्मिक विकास के लिए प्राणघातक होगा तथा हमें हमारी सांस्कृतिक जड़ों से काट देगा।”

उपरोक्त गद्यांश के आधार पर पूछे गए प्रश्नो के उत्तर लिखिए |

(क) उपर्युक्त गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर– शीर्षक-भारतीय धर्म और संवाद।

(ख) टापू किसे कहते हैं ? ‘टापू की तरह’ जीने से लेखक का क्या अभिप्राय है?
उत्तर– ‘टापू’ समुद्र के मध्य उभरा भू-स्थल होता है जिसके चारों तरफ जल होता है। वह मुख्य भूमि से अलग होता है। ‘टापू की तरह’ जीने से लेखक का अभिप्राय है-समाज की मुख्य धारा से कटकर रहना।

(ग) ‘भारत जैसे देश में यह और भी अधिक ज़रूरी है।’ क्या जरूरी है और क्यों?
उत्तर– भारत में अनेक धर्म, मत व संप्रदाय है। अतः यहाँ एक-दूसरे को जानना, ज़रूरत समझना तथा इच्छाओं-आकांक्षाओं को समझना होगा। सभी लोगों को दूसरे के धार्मिक विश्वासों, पद्धतियों-अनुष्ठानों को सम्मान देना चाहिए।

(घ) स्वामी विवेकानंद को ‘अपने समय से बहुत आगे’ क्यों कहा गया है?
उत्तर– स्वामी विवेकानंद को अपने समय से बहुत आगे कहा गया है क्योंकि वे जानते थे कि भारत में एक धर्म, मत या विचारधारा नहीं चल सकती। उनमें संवाद होना अनिवार्य है।

(ङ) स्वामी जी के मत में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति क्या होगी और क्यों?
उत्तर– स्वामी जी के मत में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति वह होगी जब सभी व्यक्ति एक धर्म, पूजा-पद्धति व नैतिकता का अनुपालन करने लगेंगी। इससे यहाँ धार्मिक व आध्यात्मिक विकास रुक जाएगा।


02 निम्नलिखित अपठित काव्यांश को ध्यान से पढ़ें और प्रश्नों का उत्तर दें:

कई लोग समझते हैं कि अनुशासन और स्वतंत्रता में विरोध है, किन्तु वास्तव में यह भ्रम है। अनुशासन के द्वारा स्वतंत्रता छिन नहीं जाती, बल्कि दूसरों की स्वतंत्रता की रक्षा होती है । सड़क पर चलने के लिए हम लोग स्वतंत्र हैं, हमें बायीं तरफ से चलना चाहिए किन्तु चाहें तो हम बीच में भी चल सकते हैं। इससे हम अपने ही प्राण संकट में डालते हैं, दूसरों की स्वतंत्रता भी छीनते हैं। विद्यार्थी भारत के भावी निर्माता हैं। उन्हें अनुशासन के गुणों का अभ्यास अभी से करना चाहिए, जिससे वे भारत के सच्चे सपूत कहला सकें।

उपरोक्त गद्यांश के आधार पर पूछे गए प्रश्नो के उत्तर लिखिए |

(क) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए ।
उत्तर– अनुशासन या अनुशासन और स्वतंत्रता

(ख) दूसरों की स्वतंत्रता की रक्षा किससे होती है ?
उत्तर– दूसरों की स्वतंत्रता की रक्षा अनुशासन से होती है ?

(ग) भारत के सच्चे सपूत बनने के लिए विद्यार्थियों को कौन से गुणों का अभ्यास करना चाहिए?
उत्तर– भारत के सच्चे सपूत बनने के लिए विद्यार्थियों को अनुशासन के गुणों का अभ्यास करना चाहिए।

(घ) विलोम शब्द लिखिए – स्वतंत्रता, सपूत
उत्तर– शब्द विलोम शब्द
स्वतंत्रता- परतंत्रता
सपूत- कपूत

(ङ) उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए ।
उत्तर– अनुशासन ‘स्व’ और ‘पर’ की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए आवश्यक है। इससे अपने जीवन के साथ-साथ दूसरों का जीवन सुरक्षित होता है । अनुशासन के गुणों को आत्मसात करके ही विद्यार्थी सच्चे राष्ट्र निर्माता बन सकते है।


03 निम्नलिखित अपठित काव्यांश को ध्यान से पढ़ें और प्रश्नों का उत्तर दें:

धर्म एक व्यापक शब्द है। मजहब, मत, पंथ, या संप्रदाय सीमित रूप हैं। संसार के सभी धर्म मूल रूप से एक ही हैं। सभी मनुष्य के साथ सद्व्यवहार सिखाते हैं। ईश्वर किसी विशेष धर्म या जाति का नहीं । सभी प्राणियों में एक प्राण स्पंदन होता है । उसके रक्त का रंग भी एक ही है। सुख- दुःख का भाव बोध भी उनमें एक जैसा है। आकृति और वर्ण, वेशभूषा और रीति-रिवाज तथा नाम ये सभी ऊपरी वस्तुएँ हैं । ईश्वर ने मनुष्य या इंसान को बनाया है और इंसान ने बनाया है धर्म या मजहब को। ध्यान रहे मानवता या इंसानियत से बड़ा धर्म या मजहब दूसरा कोई नहीं। वह मिलना सिखाता है, अलगाव नहीं। धर्म तो एकता का द्योतक है।

उपरोक्त गद्यांश के आधार पर पूछे गए प्रश्नो के उत्तर लिखिए |

(क) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए ।
उत्तर– मानवता अथवा धर्म या मानवता – सबसे बड़ा धर्म

(ख) धर्म को किसने बनाया है?
उत्तर– धर्म को मनुष्य ने बनाया है।

(ग) सबसे बड़ा धर्म क्या है।
उत्तर– सबसे बड़ा धर्म मानवता है।

(घ) विलोम शब्द लिखिए – धर्म , इंसान
उत्तर– शब्द- विलोम शब्द
धर्म – अधर्म
इंसान – हैवान

(ङ) उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
उत्तर– संसार के सभी धर्म मूल में एक हैं । मानवता ही सबसे बड़ा धर्म है । धर्म जोड़ता है न कि तोड़ता है । संसार के सभी प्राणियों में एक ही प्राण का संचार है । वह बाह्य रूप से अलग दिखाई पड़ता है किन्तु वह अंदर से एक ही है। उसमें कोई भेद नहीं है ।


04 निम्नलिखित अपठित काव्यांश को ध्यान से पढ़ें और प्रश्नों का उत्तर दें:

संसार के सभी धरम धर्मों में एक बात समान है, वह है प्रार्थना, ईश्वर भक्ति। प्रार्थना द्वारा हम अपने हदय के भाव प्रभु के सम्मुख रखते हैं और कुछ न कुछ उस शक्तिमान से माँगते हैं। जब हमें मार्ग नहीं सूझता तो हम प्रार्थना करते है। प्रार्थना का फल उत्तम हो, इसके लिए हम अपने अंदर उत्तम विचार और एकाग्र मन उत्पन्न करने होते हैं, क्योंकि विचार ही मनुष्य को पीड़ा पहुँचाते हैं या उससे मुक्त करते है। हमारे विचार ही हमे ऊँचाई तक ले जाते हैं या फिर खाई में फ़ेंक देते हैं। यह मन ही हमारे लिए दुःख लाता है और यही आनंद की ओर ले जाता है। यजुर्वेद के एक मंत्र के अनुसार यह मन सदा ही प्रबल और चंचल है। यह जड़ होते हुए भी सोते – जागते कभी भी चैन नहीं लेता। जितनी देर हम जागते रहते है, उतनी देर यह कुछ न कुछ सोचता हुआ भटकता रहता है। अव प्रश्न यह उठता है कि मन जो अत्यंत गतिशील है, उसको स्थिर और वश में कैसे किया जाए। मन को वश मे करने का यह तात्पर्य नहीं कि यह गतिहीन हो जाए और यह गतिहीन हो ही नहीं सकता। जिस प्रकार अग्नि का धर्म ऊष्ण है उस परकार चंचलता मन का धर्म है|

उपरोक्त गद्यांश के आधार पर पूछे गए प्रश्नो के उत्तर लिखिए |

(क) संसार के सभी धर्मो मे समान है –
(१) प्रवचन व ईश्वर भक्ति
(२) प्रार्थना व प्रवचन
(३). प्रार्थना व् ईश्वर भक्ति
(४). ईश्वर भक्ति व भजन
उत्तर- (३)

(ख) मनुष्य प्रार्थना कब करता है ?
(१). संध्या काल में
(२). कोई मार्ग न सूझने पर
(३) प्रातकाल होने पर
(४) कष्ट आने पर
उत्तर- (२)

(ग) मनुष्य की पीड़ा का कारण है –
(१) मनुष्य के कर्म
(२).मन की निर्बलता
(३) मनुष्य की बुद्धि
(४) मन में उतपन्न विचार
उत्तर- (४)

(घ) ‘ऊँचाई तक ले जाना और खाई में फेंकना’ – से आशय है –
(१) आर्थिक विकास व आर्थिक अभाव
(२) आत्मिक उत्थान व पतन
(३) धार्मिक दृष्टि से उत्थान व पतन
(४) . बौद्धिक उत्थान व पतन
उत्तर- (२)

(ङ) ‘यजुवेद में मन की कौन सी विशेषता बताई गई है ?
(१ ) प्रबल और स्थिर
(२) प्रबल और एकग्र
(३) प्रबल और चंचल
(४) प्रबल और गतिहीन
उत्तर- (३)


05 निम्नलिखित अपठित काव्यांश को ध्यान से पढ़ें और प्रश्नों का उत्तर दें:

किसी भी देश की सीमा का निर्धारण केवल भौगोलिक रूप से ही नहीं किया जा सकता , बल्कि इसके लिए कई अन्य तत्व भी जिम्मेदार होते हैं। ‘आर्थिक’ , ‘सामाजिक’ , ‘सांस्कृतिक’ एवं ‘भौगोलिक’ जैसे कई उपादानों के द्वारा ही किसी भी देश की सीमाओं को भली – भांति निश्चित किया जा सकता है। आर्थिक दृष्टिकोण से देखें तो आज सारा विश्व ही एक सार्वभौमिक गांव के रूप में हमारे समक्ष आता है। सभी देश अपनी प्राथमिकताएं तय करने में मूल रूप से आर्थिक हितों को पहले स्थान पर रख रहे हैं। हो क्यों ना ? आर्थिक सफलता से ही रोजगार का सृजन होता है और बेरोजगारी तथा बेकारी पर लगाम लगाया जा सकता है।

देश का सामाजिक ढांचा दुरुस्त रहे इसके लिए आर्थिक सुरक्षा अत्यंत आवश्यक है। बिना आर्थिक सुरक्षा के लोगों को अपने रोजगार के लिए पलायन आम बात हो जाती है। सामाजिक सुदृढ़ता के लिए लोगों का आत्मनिर्भर होना आवश्यक है। तभी वे अपने देश के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह सफलतापूर्वक कर पाएंगे। इस प्रकार सांस्कृतिक विविधता के बावजूद एकता का उद्घोष संभव हो सकेगा। समग्रता को अपने मूल में संजोए अपनी सीमाओं को नए सिरे से परिभाषित करना आज के युग की नई मांग है।

उपरोक्त गद्यांश के आधार पर पूछे गए प्रश्नो के उत्तर लिखिए |

(क) किसी भी देश की सीमाओं के निर्धारण के लिए कौन-कौन से तत्व जिम्मेदार है ?
उत्तर– आर्थिक सामाजिक सांस्कृतिक एवं भौगोलिक आदि।

(ख) सभी देश आज अपनी प्राथमिकताएं तय करने में किन हितों को पहले स्थान पर रखते हैं ?
उत्तर– आर्थिक हितों को

(ग) ‘ बेकारी ‘ तथा ‘ बेरोजगारी ‘ पर लगाम किस तरह से लगाया जा सकता है ?
उत्तर– आर्थिक सफलता से ही रोजगार का सृजन होता है। और बेकारी एवं बेरोजगारी पर लगाम लगाया जा सकता है।

(घ) सामाजिक सुदृढ़ता के लिए , लोगों के लिए क्या आवश्यक है ?
उत्तर– सामाजिक सुदृढ़ता के लिए लोगों का आत्मनिर्भर होना आवश्यक है।

(ड) ‘लगाम लगाना ‘ मुहावरे का अर्थ लिखिए।
उत्तर– रोक लगाना। ( उत्तर अपने विवेकानुसार लिखें )


06 निम्नलिखित अपठित काव्यांश को ध्यान से पढ़ें और प्रश्नों का उत्तर दें:

धर्म एक व्यापक शब्द है। मजहब, मत,पंथ या संप्रदाय सीमित रूप है। संसार के सभी धर्म मूल रूप में एक ही हैं। सभी मनुष्य के साथ सद्व्यवहार सिखाते हैं। ईश्वर किसी विशेष धर्म या जाति का नहीं। सभी मानवों में एक प्राण स्पंदन होता है। उसके रक्त का रंग भी एक ही है। सुख-दुःख का भाव बोध भी उनमें एक जैसा है। आकृति और वर्ण, वेशभूषा और रीतिरिवाज तथा नाम ये सब ऊपरी वस्तुएँ हैं। ईश्वर ने मनुष्य या इंसान को बनाया है और इंसान ने बनाया है धर्म या मजहब को। ध्यान रहे मानवता या इंसानियत से बड़ा धर्म या मजहब दूसरा कोई नहीं। वह मिलना सिखाता है, अलगाव नहीं। ‘धर्म’ तो एकता का द्योतक है।

उपरोक्त गद्यांश के आधार पर पूछे गए प्रश्नो के उत्तर लिखिए |

(क) उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक लिखिए।
उत्तर– शीर्षक-धर्म का अर्थ।’

(ख) सबसे बड़ा धर्म कौन-सा है?
उत्तर– इन्सानियत या मानवता ही सबसे बड़ा धर्म है।

(ग) बाह्य वस्तुएँ क्या हैं?
उत्तर– संसार में भिन्न-भिन्न आकृति एवं वर्ण वाले लोग होते हैं। इन व्यक्तियों के रीतिरिवाज और वेशभूषा भी अलग-अलग होती हैं। ये सभी बाह्य वस्तुएँ कहीं जाती हैं।


07 निम्नलिखित अपठित काव्यांश को ध्यान से पढ़ें और प्रश्नों का उत्तर दें:

राष्ट्रभाषा और राजभाषा के पद पर अभिषिक्त होने के कारण हिन्दी का दायित्व कुछ बढ़ जाता है। अब वह मात्र साहित्य की भाषा ही नहीं रह गयी है, उसके माध्यम से ज्ञान-विज्ञान और तकनीक की उत्तरोत्तर बढ़ती हुई उपलब्धियों का भी ज्ञान विकास करना तथा प्रशासन की भाषा के रूप में उसका नव-निर्माण करना हमारा दायित्व है। यह बड़ा महान् कार्य है और इसके लिए बड़ी उदार और व्यापक दृष्टि तथा कठिन साधना की अपेक्षा है।

उपरोक्त गद्यांश के आधार पर पूछे गए प्रश्नो के उत्तर लिखिए |

(क) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
उत्तर– शीर्षक-राष्ट्रभाषा हिन्दी।’

(ख) उपर्युक्त गद्यांश का सारांश लिखिए।
उत्तर– सारांश-आज हिन्दी भाषा राष्ट्रभाषा के पद पर आसीन है। आज हिन्दी भाषा से ज्ञान विज्ञान एवं तकनीकी की जानकारी मिल रही है। प्रशासकीय स्तर पर भी हिन्दी का प्रयोग अनिवार्य कर दिया गया है। हिन्दी सभी क्षेत्रों में एक गौरवशाली भाषा के रूप में प्रतिष्ठित है। हमें अपने दृष्टिकोण को व्यापक बनाकर हिन्दी को पूरा सम्मान देना होगा। इसी में सबका हित-साधन है।

(ग) हिन्दी भाषा किस पद पर अभिषिक्त है?
उत्तर– हिन्दी भाषा राष्ट्रभाषा और राजभाषा के पद पर अभिषिक्त है।

(घ) हिन्दी का दायित्व क्यों बढ़ गया है?
उत्तर– राष्ट्रभाषा और राजभाषा के पद पर अभिषिक्त होने से हिन्दी का दायित्व बढ़ जाता है, क्योंकि अब यह ज्ञान-विज्ञान और तकनीक की भाषा बन चुकी है।


08 निम्नलिखित अपठित काव्यांश को ध्यान से पढ़ें और प्रश्नों का उत्तर दें:

संस्कृतियों के निर्माण में एक सीमा तक देश और जाति का योगदान रहता है। संस्कृति के मूल उपादान तो प्रायः सभी सुसंस्कृत और सभ्य देशों में एक सीमा तक समान रहते हैं, किंतु बाहय उपादानों में अंतर अवश्य आता है। राष्ट्रीय या जातीय संस्कृति का सबसे बड़ा योगदान यही है कि वह हमें अपने राष्ट्र की परंपरा से संपृक्त बनाती है, अपनी रीति-नीति की संपदा से विच्छिन्न नहीं होने देती। आज के युग में राष्ट्रीय एवं जातीय संस्कृतियों के मिलन के अवसर अति सुलभ हो गए हैं, संस्कृतियों का पारस्परिक संघर्ष भी शुरू हो गया है। कुछ ऐसे विदेशी प्रभाव हमारे देश पर पड़ रहे हैं, जिनके आतंक ने हमें स्वयं अपनी संस्कृति के प्रति संशयालु बना दिया है। हमारी आस्था डिगने लगी है। यह हमारी वैचारिक दुर्बलता का फल है।

अपनी संस्कृति को छोड़, विदेशी संस्कृति के विवेकहीन अनुकरण से हमारे राष्ट्रीय गौरव को जो ठेस पहुंच रही है, वह किसी राष्ट्रप्रेमी जागरूक व्यक्ति से छिपी नहीं है। भारतीय संस्कृति में त्याग और ग्रहण की अद्भुत क्षमता रही है। अतः आज के वैज्ञानिक युग में हम किसी भी विदेशी संस्कृति के जीवंत तत्वों को ग्रहण करने में पीछे नहीं रहना चाहेंगे, किंतु अपनी सांस्कृतिक निधि की उपेक्षा करके नहीं। यह परावलंबन राष्ट्र की गरिमा के अनुरूप नहीं है। यह स्मरण रखना चाहिए कि सूर्य की आलोकप्रदायिनी किरणों से पौधे को चाहे जितनी जीवनशक्ति मिले, किंतु अपनी जमीन और अपनी जड़ों के बिना कोई पौधा जीवित नहीं रह सकता। अविवेकी अनुकरण अज्ञान का ही पर्याय है।

उपरोक्त गद्यांश के आधार पर पूछे गए प्रश्नो के उत्तर लिखिए |

(क) आधुनिक युग में संस्कृतियों में परस्पर संघर्ष प्रारंभ होने का प्रमुख कारण बताइए।
उत्तर– आधुनिक युग में संस्कृतियों में परस्पर संघर्ष प्रारंभ होने का प्रमुख कारण यह है कि भिन्न संस्कृतियों के निकट आने के कारण अतिक्रमण एवं विरोध स्वाभाविक है।

(ख) हम अपनी संस्कृति के प्रति शंकालु क्यों हो गए हैं?
उत्तर– हम अपनी संस्कृति के प्रति शंकालु इसलिए हो गए हैं, क्योंकि नई पीढ़ी ने विदेशी संस्कृति के कुछ तत्वों को स्वीकार करना प्रारंभ कर दिया है।

(ग) राष्ट्रीय संस्कृति की हमारे प्रति सबसे बड़ी देन क्या है?
उत्तर– राष्ट्रीय संस्कृति की हमारे प्रति सबसे बड़ी देन यही है कि वह हमें अपने राष्ट्र की परंपरा और रीति – नीति से जोड़े रखती है।

(घ) हम अपनी सांस्कृतिक संपदा की उपेक्षा क्यों नहीं कर सकते?
उत्तर– हम अपनी सांस्कृतिक संपदा की उपेक्षा इसलिए नहीं कर सकते, क्योंकि ऐसा करने से हम जडविहीन पौधे के समान हो जाएंगे।

(ड) हम विदेशी संस्कृति से क्या ग्रहण कर सकते हैं तथा क्यों?
उत्तर– हम विदेशी संस्कृति के जीवंत तत्वों को ग्रहण कर सकते हैं, क्योंकि भारतीय संस्कृति में त्याग व ग्रहण की अद्भुत क्षमता रही है।

(च) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए-
प्रत्यय बताइए-जातीय, सांस्कृतिक।
पर्यायवाची बताइए-देश, सूर्य।
उत्तर– प्रत्यय-ईय, इका
पर्यायवाची देश-राष्ट्र राज्य।
सूर्य – रवि, सूरज।

(छ) गद्यांश में युवाओं के किस कार्य को राष्ट्र की गरिमा के अनुकूल नहीं माना गया है तथा उन्हें क्या संदेश दिया गया है?
उत्तर– गद्यांश में युवाओं द्वारा विदेशी संस्कृति का अविवेकपूर्ण अंधानुकरण करना राष्ट्र की गरिमा के अनुकूल नहीं माना गया है। साथ ही-साथ युवाओं के लिए यह संदेश दिया गया है कि उन्हें भारतीय संस्कृति की अवहेलना करके विदेशी संस्कृति का अंधानुकरण नहीं करना चाहिए।

(ज) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर– शीर्षक-भारतीय और विदेशी संस्कृति का संघर्ष


09 निम्नलिखित अपठित काव्यांश को ध्यान से पढ़ें और प्रश्नों का उत्तर दें:

जाति-प्रथा को यदि श्रम-विभाजन मान लिया जाए, तो यह स्वाभाविक विभाजन नहीं है, क्योंकि यह मनुष्य की रुचि पर आधारित है। कुशल व्यक्ति या सक्षम श्रमिक समाज का निर्माण करने के लिए यह आवश्यक है कि हम व्यक्ति की क्षमता इस सीमा तक विकसित करें, जिससे वह अपने पेशे या कार्य का चुनाव स्वयं कर सके। इस सिद्धांत के विपरीत जाति-प्रथा का दूषित सिद्धांत यह है कि इससे मनुष्य के प्रशिक्षण अथवा उसकी निजी क्षमता का विचार किए बिना, दूसरे ही दृष्टिकोण जैसे माता पिता के सामाजिक स्तर के अनुसार पहले से ही अर्थात गर्भधारण के समय से ही मनुष्य का पेशा निर्धारित कर दिया जाता है।

जाति-प्रथा पेशे का दोषपूर्ण पूर्वनिर्धारण ही नहीं करती, बल्कि मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे में बाँध भी देती है, भले ही पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण वह भूखों मर जाए। आधुनिक युग में यह स्थिति प्राय आती है, क्योंकि उद्योग धंधे की प्रक्रिया व तकनीक में निरंतर विकास और कभी-कभी अकस्मात परिवर्तन हो जाता है, जिसके कारण मनुष्य को अपना पेशा बदलने की आवश्यकता पड़ सकती है और यदि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मनुष्य को अपना पेशा बदलने की स्वतंत्रता न हो तो इसके लिए भूखे मरने के अलावा क्या चारा रह जाता है? हिंदू धर्म की जाति प्रथा किसी भी व्यक्ति को ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती है, जो उसका पैतृक पेशा न हो, भले ही वह उसमें पारंगत है। इस प्रकार पेशा-परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति-प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख व प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है।

उपरोक्त गद्यांश के आधार पर पूछे गए प्रश्नो के उत्तर लिखिए |

(क) कुशल श्रमिक-समाज का निर्माण करने के लिए क्या आवश्यक है?
उत्तर– कुशल या सक्षम श्रमिक समाज का निर्माण करने के लिए आवश्यक है कि हम जातीय जड़ता को त्यागकर प्रत्येक व्यक्ति को इस सीमा तक विकसित एवं स्वतंत्र करें, जिससे वह अपनी कुशलता के अनुसार कार्य का चुनाव स्वयं करे। यदि श्रमिकों को मनचाहा कार्य मिले तो कुशल श्रमिक-समाज का निर्माण स्वाभाविक है।

(ख) जाति-प्रथा के सिद्धांत को दूषित क्यों कहा गया है?
उत्तर– जाति-प्रथा का सिद्धांत इसलिए दूषित कहा गया है, क्योंकि वह व्यक्ति की क्षमता या रुचि के अनुसार उसके चुनाव पर आधारित नहीं है। वह पूरी तरह माता-पिता की जाति पर ही अवलंबित और निर्भर है।

(ग) जाति-प्रथा पेशे का न केवल दोषपूर्ण पूर्वनिर्धारण करती है, बल्कि मनुष्य को जीवन भर के लिए एक पेशे से बाँध देती है। कथन पर उदाहरण सहित टिप्पणी कीजिए।
उत्तर– जाति-प्रथा व्यक्ति की क्षमता, रुचि और इसके चुनाव पर निर्भर न होकर गर्भाधान के समय से ही, व्यक्ति की जाति का पूर्वनिर्धारण कर देती है, जैसे-धोबी, कुम्हार, सुनार आदि।

(प) भारत में जाति-प्रथा बेरोजगारी का एक प्रमुख कारण किस प्रकार बन जाती है?
उत्तर– उद्योग-धंधों की प्रक्रिया और तकनीक में निरंतर विकास और परिवर्तन हो रहा है, जिसके कारण व्यक्ति को अपना पेशा बदलने की जरूरत पड़ सकती है। यदि वह ऐसा न कर पाए तो उसके लिए भूखे मरने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रह पाता।

(ड) जाति-प्रथा के दोषपूर्ण पक्ष कौन कौन से हैं?
उत्तर– जाति-प्रथा के दोषपूर्ण पक्ष निम्नलिखित हैं-
पेशे का दोषपूर्ण निर्धारण।
अक्षम श्रमिक समाज का निर्माण।
देश काल की परिस्थिति के अनुसार पेशा-परिवर्तन पर रोका

(च) जाति-प्रथा बेरोजगारीका कारण कैसे बन जाती है?
उत्तर– जाति प्रथा बेरोजगारी का कारण तब बन जाती है, जब परंपरागत ढंग से किसी जाति-विशेष के द्वारा बनाए जा रहे उत्पाद को आज के औद्योगिक युग में नई तकनीक द्वारा बड़े पैमाने पर तैयार किया जाने लगता है। ऐसे में उस जाति-विशेष के लोग नई तकनीक के मुकाबले टिक नहीं पाते। उनका परंपरागत पेशा छिन जाता है, फिर भी उन्हें जाति-प्रथा पेशा बदलने की अनुमति नहीं देती। ऐसे में बेरोजगारी का बढ़ना स्वाभाविक है।

(छ) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए-
गद्यांश में से इक और इत प्रत्ययों से बने शब्द छाँटकर लिखिए।
समस्तपदों का विग्रह कीजिए और समास का नाम लिखिए श्रम विभाजन, माता-पिता।
उत्तर– प्रत्यय-इक, इत प्रत्यययुक्त शब्द-स्वाभाविक, आधारित।
समस्तपद समास-विग्रह समास का नाम
श्रम विभाजन : श्रम का विभाजन तत्पुरुष समास
माता-पिता : माता और पिता द्वंद्व समास

(ज) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर– शीर्षक – जाति प्रथा – एक सामाजिक बुराई


10 निम्नलिखित अपठित काव्यांश को ध्यान से पढ़ें और प्रश्नों का उत्तर दें:

महानगरों में भीड़ होती है, समाज या लोग नहीं बसते । भीड़ उसे कहते हैं जहाँ लोगों का जमघट होता है। लोग तो होते हैं लेकिन उनकी छाती में हृदय नहीं होता; सिर होते हैं, लेकिन उनमें बुद्धि या विचार नहीं होता। हाथ होते हैं, लेकिन उन हाथों में पत्थर होते हैं, विध्वंस के लिए, वे हाथ निर्माण के लिए नहीं होते। यह भीड़ एक अंधी गली से दूसरी गली की ओर जाती है, क्योंकि भीड़ में होने वाले लोगों का आपस में कोई रिश्ता नहीं होता। वे एक-दूसरे के कुछ भी नहीं लगते। सारे अनजान लोग इकट्ठा होकर विध्वंस करने में एक-दूसरे का साथ देते हैं, क्योंकि जिन इमारतों, बसों या रेलों में ये तोड़-फोड़ के काम करते हैं, वे उनकी नहीं होतीं और न ही उनमें सफर करने वाले उनके अपने होते हैं। महानगरों में लोग एक ही. बिल्डिंग में पड़ोसी के तौर पर रहते हैं, लेकिन यह पड़ोस भी संबंधरहित होता है। पुराने जमाने में दही जमाने के लिए जामन माँगने पड़ोस में लोग जाते थे, अब हरे फ्लैट में फ्रिज है, इसलिए जामन माँगने जाने की भी जरूरत नहीं रही। सारा पड़ोस, सारे संबंध इस फ्रिज में ‘फ्रीज’ रहते हैं।

उपरोक्त गद्यांश के आधार पर पूछे गए प्रश्नो के उत्तर लिखिए |

(क) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर– गद्यांश का उचित शीर्षक-‘महानगरों की असामाजिक संस्कृति।’

(ख) ‘महानगरों में भीड़ होती है, समाज या लोग नहीं बसते’-इस वाक्य का आशय क्या है?
उत्तर– महानगरों में विशाल संख्या में लोग निवास करते हैं उनमें पारस्परिक सामाजिक संबंध नहीं होते हैं। वे एक-दूसरे को जानते नहीं, आपस में मिलते-जुलते भी नहीं हैं। पास रहने पर भी वे एक दूसरे के पड़ोसी नहीं होते।

(ग) विध्वंस’ का विलोम लिखिए।
उत्तर– विध्वंस का विलोम निर्माण है।

(घ) सारे संबंध इस फ्रिज में ‘फ्रीज’ रहते हैं-ऐसा क्यों कहा जाता है?
उत्तर– फ्रिज खाद्य पदार्थों को ठंडा रखने के लिए प्रयोग होने वाला एक यंत्र है। आधुनिक समाज में परस्पर संबंधों में गर्माहट नहीं रही है। लोग एक ही बिल्डिंग में रहते हैं परन्तु पड़ोसी से उनके सम्बन्ध ही नहीं होते वे एक-दूसरे को जानते तक नहीं हैं।


11 निम्नलिखित अपठित काव्यांश को ध्यान से पढ़ें और प्रश्नों का उत्तर दें:

हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में मुंशी प्रेमचन्द उपन्यास सम्राट के नाम से प्रसिद्ध हैं। अपने जीवन की अंतिम यात्रा उन्होंने मात्र 56 वर्ष की आयु में ही पूर्ण कर ली थी, यथापि उनकी एक-एक रचना उन्हें युगों-युगों तक जीवंत रखने में सक्षम है। ‘गोदान’ के संदर्भ में तो यहाँ तक कहा गया है कि यदि प्रेमचन्द के सारे ग्रंथों को जला दिया जाए और मात्र गोदान को बचाकर रख लिया जाए वहीं उन्हें हमेशा-हमेशा के लिए जीवित रखने को पर्याप्त है। प्रेमचन्द का जीवन भले ही अभावों में बीता हो, किंतु वे धन का गलत ढंग से उपार्जन करने से निर्धन रहना श्रेयस्कर समझते थे। एक बार धन कमाने की इच्छा से वे मुम्बई भी गए किंतु वहाँ का रंग-ढंग उन्हें श्रेष्ठ साहित्यकार के प्रतिकूल ही लगा। प्रेमचन्द ने अपने उपन्यास एवं कहानियों में किसान की दयनीय हालत, उपेक्षित वर्ग की समस्याएँ, बेमेल विवाह की समस्या को उजागर करके समाधान भी प्रस्तुत किए हैं। अंग्रेजी शासन काल में उनकी रचनाओं ने अस्त्रे का कार्य किया, जिससे अंग्रेजों की नींद तक उड़ गई थी। आदर्श एवं यथार्थ का इतना सुंदर समन्वय शायद ही कहीं मिलेगा जितना कि प्रेमचन्द के उपन्यासों में मिलता है।

उपरोक्त गद्यांश के आधार पर पूछे गए प्रश्नो के उत्तर लिखिए |

(क) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर– गद्यांश का उचित शीर्षक-‘उपन्यास-सम्राट मुंशी प्रेमचन्द’।

(ख) प्रेमचन्द कौन थे? उनकी प्रसिद्धि को क्या कारण है?
उत्तर– प्रेमचन्द हिन्दी के एक श्रेष्ठ कहानीकार-उपन्यासकार थे। उनका साहित्य उनकी प्रसिद्धि का कारण है।

(ग) प्रेमचन्द ने अपने साहित्य में किन समस्याओं को उठाया है?
उत्तर– प्रेमचन्द ने अपनी कहानियों तथा उपन्यासों में भारत के लोगों की समस्याओं को उठाया है। इनमें किसानों की बुरी दशा, पिछड़े तथा उपेक्षित लोगों की समस्याएँ, बेमेल विवाह आदि मुख्य हैं।

(घ) “प्रतिकूल’का विलोम शब्द लिखिए तथा इसको अपने वाक्य में प्रयोग भी कीजिए।
उत्तर– “प्रतिकूल का विलोम शब्द ‘अनुकूल’ है। वाक्य प्रयोग-मनुष्य अपने परिश्रम से प्रतिकूल परिस्थितियों को भी अपने अनुकूल बना लेता है।


12 निम्नलिखित अपठित काव्यांश को ध्यान से पढ़ें और प्रश्नों का उत्तर दें:

यदि मनुष्य और पशु के बीच कोई अंतर है तो केवल इतना कि मनुष्य के भीतर विवेक है और पशु विवेकहीन है। इसी विवेक के कारण मनुष्य को यह बोध रहता है कि क्या अच्छा है और क्या बुरा। इसी विवेक के कारण मनुष्य यह समझ पाता है कि केवल खाने-पीने और सोने में ही जीवन का अर्थ और इति नहीं। केवल अपना पेट भरने से ही जगत के सभी कार्य संपन्न नहीं हो जाते और यदि मनुष्य का जन्म मिला है तो केवल इसी चीज का हिसाब रखने के लिए नहीं कि इस जगत ने उसे क्या दिया है और न ही यह सोचने के लिए कि यदि इस जगत ने उसे कुछ नहीं दिया तो वह इस संसार के भले के लिए कार्य क्यों करे। मानवता का बोध कराने वाले इस गुण ‘विवेक’ की जननी का नाम ‘शिक्षा’ है। शिक्षा जिससे अनेक रूप समय के परिवर्तन के साथ इस जगत में बदलते रहते हैं, वह जहाँ कहीं भी विद्यमान रही है सदैव अपना कार्य करती रही है। यह शिक्षा ही है जिसकी धुरी पर यह संसार चलायमान है। विवेक से लेकर विज्ञान और ज्ञान की जन्मदात्री शिक्षा ही तो है। शिक्षा हमारे भीतर विद्यमान वह तत्त्व है जिसके बल पर हम बात करते हैं, कार्य करते हैं, अपने मित्रों और शत्रुओं की सूची तैयार करते हैं, उलझनों को सुलझनों में बदलते हैं। असल में सीखने और सिखाने की प्रक्रिया को ही ‘शिक्षा’ कहते हैं। शिक्षा उन तथ्यों का तथा उन तरीकों का ज्ञान कराती है जिन्हें हमारे पूर्वजों ने खोजा था-सभ्य तथा सुखी जीवन बिताने लिए।
आज यदि हम सुखी जीवन बिताना चाहते हैं तो हमें उन तरीकों को सीखना होगा, उन तथ्यों को जानना होगा जिन्हें जानने के लिए हमारे पूर्वजों ने निरंतर सदियों तक शोध किया है। यह केवल शिक्षा के द्वारा ही संभव है।

उपरोक्त गद्यांश के आधार पर पूछे गए प्रश्नो के उत्तर लिखिए |

(क) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर– गद्यांश की उचित शीर्षक है-‘शिक्षा और विवेक’।

(ख) मनुष्य और पशु में क्या अन्तर है?
उत्तर– मनुष्य विवेकशील प्राणी है। विवेक के कारण वह उचित और अनुचित में अन्तर करके उचित को अपनाने तथा अनुचित को त्यागने में समर्थ होता है। पशु में विवेक नहीं होता और वह उचित-अनुचित का विचार नहीं कर सकता।

(ग) विवेक से किसका बोध होता है तथा उसका जन्म कैसे होता है?
उत्तर– विवेक से मानवता का बोध होता है। जिसमें विवेक है वही मनुष्य कहलाता है। मनुष्य अपने जीवन में जो शिक्षा ग्रहण करता है, उसी के कारण उसमें विवेक का गुण उत्पन्न होता है।

(घ) ‘विज्ञान’ शब्द में उपसर्ग और मूल शब्द लिखिए।
उत्तर– वि = उपसर्ग, ज्ञान = मूल शब्द ।


13 निम्नलिखित अपठित काव्यांश को ध्यान से पढ़ें और प्रश्नों का उत्तर दें:

जीवन का दूसरा नाम संग्राम है| यह संग्राम जन्म से आरंभ होकर जीवन पर्यन्त जारी रहता है| प्राचीन पुराणों में देवासुर संग्राम का उल्लेख है, जिसमें विष्णु की कूटनीति से देवताओं ने असुरों से संधि का प्रस्ताव रखा| इसके अनुसार समुद्र मंथन मिलकर करना तय हुआ| निश्चय किया गया कि इस मंथन से प्राप्त वस्तुओं को वे दोनों संयुक्त रूप से विभक्त कर लेंगे| मंदराचल पर्वत को मथानी, शेषनाग को रस्सी तथा स्वयं भगवान विष्णु ने कच्छप के रूप में इस प्रकार में सहयोग दिया| अभिमानी दैत्य, सर्प के मुंह तथा देव पूँछ की ओर लगे| कार्य समाप्त हुआ| रत्नों का विभाजन हुआ| इसमें एक कमल, मीण, लक्ष्मी, पदम, शंख, हाथी आदि देवों को तथा घोड़ा आदि दानवो को प्राप्त हुआ| मदिरा दानवो ने तथा हलाहल विष को भगवान शंकर ने पान कर कंठ में धारण किया और नीलकंठ कहलाए| अमृत निकलने पर छीन- झपट आरंभ हुई| विष्णु ने चालाकी से दैत्यों को मदिरा तथा देवों को अमृत पिलाया| उधर राहु नामक दैत्ये ने छल से अमृत पी लिया| विष्णु ने चक्र से उसका सिर काट दिया, किंतु वह अमर हो गया|

ब्रह्म रूप में तो यह संग्राम समाप्त हो गया, किंतु अप्रत्यक्ष रूप में यह आज भी जारी है| इस संग्राम का केंद्र मानव मन, अच्छी और बुरी प्रवर्ति दो पक्ष सारा वातावरण ही इसके कारण है| जैसे-जैसे मानव साकार रूप देने का प्रयास आरंभ कर देता है| इस प्रयत्न में वह न्यूनतम स्तर पर पहुंच जाता है| स्वार्थ सिद्धि ही उसका एकमात्र उद्देश्य बन जाता है| उसके जीवन का केंद्र स्वार्थ और तृप्ति में ही निहित हो जाता है| ऐसा व्यक्ति कभी नैतिक मूल्यों पर विचार की कल्पना भी नहीं कर सकता| यही कारण है कि वह हर समय अशांत और तनावग्रस्त रहता है| इच्छा-त्याग से ही शांति का अनुभव होता है|

आसुरी शक्ति के समक्ष हमारे पूर्वजों ने घुटने टेकने के स्थान पर उसका दृढ़ता से सामना करना पसंद किया| इसके लिए उन्होंने विभीषण के सामने अपने बंधु रावण के अन्याय को स्वीकार करने के स्थान पर उसका दृढ़ता से विरोध करने का प्रस्ताव किया| ‘सत्यमेव जयते’ में विश्वास प्रकट करते हुए, असत्य और अन्याय का विरोध किया| अन्याय करना और सहना कायरता की निशानी है| अतः अन्याय सहने वाला भी अन्याय का समर्थक माना जाता है| आज धर्म और नैतिकता लुप्त हो रही है| भौतिकता के प्रति प्रेमाधिकार के कारण जीवन में संवेदना का अभाव हो गया है|

उपरोक्त गद्यांश के आधार पर पूछे गए प्रश्नो के उत्तर लिखिए |

(ख) हमारे पूर्वजों ने आसुरी शक्ति के साथ क्या किया?
उत्तर– हमारे पूर्वजों ने आसुरी शक्ति के सामने घुटने नहीं टेके| वे उसके साथ निरंतर दृढ़तापूर्वक संघर्ष करते रहे| उन्होंने विभीषण को भी समझाया कि वह अपने भाई रावण के अन्याय को सहन न करें बल्कि उसका दृढ़तापूर्वक विरोध करें| उन्होंने सत्य की जीत में सदा विश्वास किया और असत्य तथा अन्याय का हमेशा विरोध किया| वे अन्याय सहन करने को कायरता मानते थे और कभी अन्याय सहन नहीं करते थे|

(ग) ‘समुद्र-मंथन’ की कथा संक्षेप में लिखिए|
उत्तर– देवताओं तथा असुरों ने मिलकर समुद्र को मथा था| इसके लिए मंदराचल पर्वत की मथानी तथा शेष को रस्सी की तरह प्रयोग किया गया था| दैत्यों ने शेषनाग का मुंह तथा देवताओं ने उसकी पूछ पकड़ रखी थी| भगवान विष्णु कछुए का रूप धरकर मंदराचल की मथानी को सहारा दे रहे थे| इस मंथन से चौदह रत्न प्राप्त हुए| इनका विभाजन दैत्ये तथा देवताओं के बीच हुआ था| इन रत्नों में अमृत भी था| विष्णु ने छल के साथ अमृत देवताओं को पिला दिया| असुर राहु ने देवता को धोखा देकर अमृत पी लिया| विष्णु ने उसका सिर काट दिया परंतु वह तो अमर हो चुका था| इस मंथन से प्राप्त हलाहल विष को संसार के कल्याण के लिए शिवजी ने अपने कंठ में धारण कर लिया और वह नीलकंठ कहलाए|

(घ) ‘नीलकंठ’ में विग्रह करके समास का नाम तथा परिभाषा लिखिए|
उत्तर– नीलकंठ विग्रह- नीला है कंठ जिसका वह (शिव) समाज- बहुव्रीहि|


14 निम्नलिखित अपठित काव्यांश को ध्यान से पढ़ें और प्रश्नों का उत्तर दें:

दुख के वर्ग में जो स्थान भय का है, वही स्थान आनंद-वर्ग में उत्साह का है| भय में हम प्रस्तुत कठिन स्थिति के नियम से विशेष रूप में दुखी और कभी-कभी उस स्थिति से अपने को दूर रखने के लिए प्रयत्नवान भी होते हैं| उत्साह में हमें आने वाली कठिन स्थिति के भीतर साहस के अवसर के निश्चय द्वारा प्रस्तुत कर्म-सुख की उमंग से अवश्य प्रयत्नवान होते हैं| उत्साह में कष्ट या हानि सहन करने की दृढ़ता के साथ-साथ कर्म में प्रवृत्त होने के आनंद का योग रहता है| साहसपूर्ण आनंद की उमंग का नाम उत्साह है| कर्म-सौंदर्य के उपासक ही सच्चे उत्साही कहलाते हैं|

जिन कर्मों में किसी प्रकार का कष्ट या हानि सहने का साहस अपेक्षित होता है, उन सब के प्रति उत्कंठापूर्ण आनंद उत्साह के अंतर्गत लिया जाता है| कष्ट या हानि के भेद के अनुसार उत्साह के भी भेद हो जाते हैं| साहित्य मीमांसकों ने इसी दृष्टि से युद्ध-वीर, दान-वीर इत्यादि भेद किए हैं| इनमें सबसे प्राचीन और प्रधान युद्ध वीरता है, जिसमें आघात, पीड़ा या मृत्यु की परवाह नहीं रहती| इस प्रकार की वीरता का प्रयोजन अत्यंत प्राचीन काल से होता चला आ रहा है, जिसमें साहस और प्रयत्न दोनों चरम उत्कर्ष पर पहुंचते हैं| साहस में ही उत्साह का स्वरूप स्फुरित नहीं होता| उसके साथ आनंदपूर्ण प्रयत्न या उसकी उत्कंठा का योग चाहिए| बिना बेहोश हुए भारी फोड़ा चिराने का तैयार होना साहस कहा जाएगा, पर उत्साह नहीं| इसी प्रकार चुपचाप बिना हाथ-पैर हिलाये, घोर प्रहार सहने के लिए तैयार रहना साहस और कठिन प्रहार सहकर भी जगह से ना हटना धीरता कही जाएगी| ऐसे साहस और धीरता को उत्साह के अंतर्गत तभी ले सकते हैं, जबकि साहसी धीर उस काम को आनंद के साथ करता चला जाएगा जिसके कारण उसे इतने प्रहार सहने पड़ते हैं| सारांश यह है कि आनंदपुर प्रयत्न या उसकी उत्कंठा में ही उत्साह का दर्शन होता है, केवल कष्ट सहने में या निश्चित साहस में नहीं| ध्रती और साहस दोनों का उत्साह के बीच संचरण होता है|

उपरोक्त गद्यांश के आधार पर पूछे गए प्रश्नो के उत्तर लिखिए |

(क) गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए|
उत्तर– गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक उत्साह है|

(ख) उत्साह किसे कहते हैं?
उत्तर– दुःख तथा आनंद को दो मनोभाव हैं| दुःख के वर्ग में जो स्थान भय का है, वही स्थान आनंद के वर्ग में उत्साह का है| जब हम आगे वाली कठिन परिस्थिति का सामना करने की हिम्मत जुटाते हैं और कार्य करने में खुशी से लग जाते हैं, तो उसे हमारा उत्साह कहा जायेगा| जिन कार्यों के करने में कष्ट हानि सहने के साहस की जरूरत होती है, उनमें प्रसन्नता के साथ लग जाने के भाव को ही साहस कहते हैं|

(ग) उत्साह के भेदों में सबसे प्राचीन और प्रधान देश कौन सा है? और क्यों?
उत्तर– साहित्य के विचारको ने कष्ट या हानि सहने के साहस की मात्रा के अनुसार उत्साह के युद्धवीर, दानवीर, दयावीर आदि भेद किए हैं| इन भेदों में युद्धवीरता सबसे प्राचीन तथा प्रधान भेद है| इसमें चोट, पीड़ा या मृत्यु की परवाह नहीं रहती| इस प्रकार की वीरता का प्रयोजन बहुत पुराने समय से चलता आ रहा है| इसमें साहस और प्रयत्न दोनों का चरम उत्कर्ष मिलता है|

(घ) आनंद वर्ग कर्म सौंदर्य युद्धवीर दानवीर शब्दों के समास बताइए|
उत्तर– आनंद का वर्क तत्पुरुष समास कर्म का सौंदर्य तत्पुरुष समास युद्ध में वीर तत्पुरुष समास धान में वीर तत्पुरुष समास|


15 निम्नलिखित अपठित काव्यांश को ध्यान से पढ़ें और प्रश्नों का उत्तर दें:

ईर्ष्या का यही अनोखा वरदान है| जिस मनुष्य के हृदय में घर बना लेती है, बल्कि उन वस्तुओं से दु:ख उठाता है, जो दूसरों के पास है| वह अपनी तुलना दूसरों के साथ करता है और इस तुलना में अपने वक्ष के सभी अभाव उसके हृदय पर दंश मारते रहते हैं| दंश के इस राह को भोगना कोई अच्छी बात नहीं है| मगर, ईर्ष्यालु मनुष्य करें भी तो क्या? आदत से लाचार होकर उसे यह वेदना भोगनी पड़ती है|

एक उपवन को पाकर भगवान को धन्यवाद देते हुए उसका आनंद नहीं लेना और बराबर इस चिंता में निमग्न रहना कि इससे भी बड़ा उपवन क्यों नहीं मिला? एक ऐसा दोष है जिससे ईर्ष्यालु व्यक्ति का चरित्र और भी भयंकर हो उठता है| अपने अभाव पर दिन-रात सोचते-सोचते वह सृष्टि की प्रक्रिया को भूल कर विनाश में लग जाता है और अपनी उन्नति के लिए उधम करना छोड़कर वह दूसरों की हानि पहुंचाने को ही अपना श्रेष्ठ कर्तव्य समझने लगता है|

ईर्ष्या की बड़ी बेटी का नाम निंदा है| जो व्यक्ति ईर्ष्यालु होता है, वही व्यक्ति बुरे किस्म का निंदक भी होता है| दूसरों की निंदा वह इसलिए करता है कि इस प्रकार, दूसरे लोग जनता अथवा मित्रों की आंखों से गिर जाएंगे और तब जो स्थान रिक्त होगा उस पर अनायास में ही बिठा दिया जाऊंगा|

मगर, ऐसा ने आज तक हुआ है और आगे होगा| दूसरों को गिराने की कोशिश तो अपने को बढ़ाने की कोशिश नहीं कही जा सकती| एक बात और है कि संसार में कोई भी मनुष्य निंदा से नहीं गिरता| उसके पतन का कारण अपने ही भीतर के सद्गुणों का हस्स होता है| इसी प्रकार कोई भी मनुष्य दूसरों की निंदा करने से अपनी उन्नति नहीं कर सकता| उन्नति तो उसकी तभी होगी, जब वह अपने चरित्र को निर्मल बनाए|

ईर्ष्या का काम जलना है, मगर सबसे पहले वह उसी को जलाती है जिसके हृदय में उसका जन्म होता है| आप भी ऐसे बहुत से लोगों को जानते होंगे जो ईर्ष्या और द्वेष को साकार मूर्ति है|

उपरोक्त गद्यांश के आधार पर पूछे गए प्रश्नो के उत्तर लिखिए |

(क) उपयुक्त गद्यांश के लिए एक उचित शीर्षक लिखिए|
उत्तर– उपयुक्त गद्यांश के लिए उचित शीर्षक- ईर्ष्या|

(ख) ईर्ष्यालु मनुष्य अपनी किस आदत से लाचार होकर कष्ट उठाता है|
उत्तर– ईर्ष्यालु व्यक्ति की आदत बन जाती है कि वह अपनी तुलना दूसरों से करता है कुछ वस्तुएँ दूसरों के पास होती है और उसके पास नहीं होती यह बात उसको दु:ख देती है| वह अपने पास होने वाली वस्तुओं का आनंद प्राप्त न करके जो चीजें उसके पास नहीं है, उनके अभाव से दु:खी बना रहता है और जलता रहता है| अपनी इसी आदत के कारण वह कष्ट उठाता है|

(ग) ईर्ष्यालु व्यक्ति दूसरों की निंदा क्यों करता है?
उत्तर– ईर्ष्यालु व्यक्ति को दूसरों की निंदा करने में आनंद आता है| वह यह सोच कर दूसरों की निंदा करता है कि ऐसा करने से वह जनता और मित्रों की नजर में गिर जायेंगे| उनके रिक्त हुए स्थान पर उसको बैठने और आगे बढ़ने का अवसर मिल जायेगा| वह दूसरों को गिराकर स्वयं आगे बढ़ना चाहता है लेकिन ऐसा होता नहीं है| निंदा करने से कोई व्यक्ति नीचे नहीं गिरता| ईर्ष्यालु व्यक्ति इस सच्चाई को नहीं समझता और दूसरों को बदनाम करके स्वयं आगे बढ़ने के विचार में निंदा करने के काम में लगा रहता है|

(घ) ईर्ष्या का अनोखा वरदान क्या है?
उत्तर– जिस मनुष्य के हृदय में घर बना लेती है, बल्कि उन वस्तुओं से दु:ख उठाता है, जो दूसरों के पास है| वह अपनी तुलना दूसरों के साथ करता है और इस तुलना में अपने वक्ष के सभी अभाव उसके हृदय पर दंश मारते रहते हैं| दंश के इस राह को भोगना कोई अच्छी बात नहीं है|

(ड़) ‘साकार’ शब्द का विग्रह कीजिए संधि का नाम लिखिए|
उत्तर– विग्रह – स+आकार
       संधि – दीर्घ संधि


Unseen Passage for Class 10
Unseen Passage for Class 10

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Q.2: What is the difference between seen and unseen passage​ for class 10?

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Q.4: What precaution should we take before writing the answer in the unseen passage for class 10?

Answer: Do not try to write the answer without reading the passage Read all the alternatives very carefully, don’t write the answer until you feel that you have selected the correct answer. Check your all answers to avoid any mistakes.

Q.1: How will I prepare myself to solve the unseen passage for class 10?

Answer: In the Exam, you will be given a small part of any story and you need to answer them to score good marks in your score. So firstly understand what question is being asked. Then, go to the passage and try to find the clue for your question. Read all the alternatives very carefully. Do not write the answer until you feel that you have selected the correct answer.

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